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[८६ 1 मनुष्यों के लिये ही लिखे गये हैं, सम्यग्दर्शन-शान चारित्रको मुक्तिका उपाय (मार्ग) बतलाया है-सम्मेदशिखरको यात्रा अथवा उसके दर्शनको किसी भी सिद्धान्तग्रंथमें मुक्तिका उपाय नहीं लिखा। दूसरे, खुद इस ग्रंथके भी यह विरुद्ध है; क्योंकि इसी प्रथमें मुक्तिके दूसरे उपाय भी बतलाये हैं। उदाहरणके तौर पर कर्मदहन आदि व्रतोंको ही लीजिये, जिनसे द्वितीयादि भवमें मुक्तिका प्राप्त होना लिखा है-इस यात्रासे भी द्वितीयादि भवमें हो मुक्तिको प्राप्ति होना बतलाया है। फिर पंथकारका यहां भगवानके मुखसे यह कहलाना कि 'मुक्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं कितनी अधिक नासमझो तथा अवि. वेकसे सम्बन्ध रखता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । यदि शिवका-मुक्ति अथवा कल्याणका-दूसरा कोई उपाय नहीं है-सम्यग्दर्शनादिक भी नहीं-तब समझमें नहीं आता कि इस प्रथके उपासक मुनिजन भी क्यों व्यर्थके तप, जप, ध्यान, संयम और उपवासादिका कष्ट उठा रहे हैं ! उन्हे तो सब कुछ छोड़-छाड़कर एक मात्र सम्मेदशिखरका दर्शनही करते रहना चाहिये !!
५ भव्यत्वकी अपूर्व कसौटी !
कोई जीव भव्य है या अभव्य, इसका पहचानना बड़ा हो मुशकिल काम है; क्योंकि कभी कभी कोई जीव प्रकटरूपमें ऊंचे दर्जे के आचारका पालन करते हुए भी अन्तरंग सम्यत्तव की योग्यता न रखनेके कारण अभव्य होता है और दूसरा महा पापाचारमें लिप्त रहने पर भी आत्मामें सम्यक्त्वके व्यक्त होने की योग्यताको रखने के कारण भव्य कहा जाता है। बहुत बड़े विशेष ज्ञानी ही जीवोंके इस भेदको पहचान सकते हैं। परन्तु पाठकोंको यह जान कर बड़ा ही कौतुक होगा कि