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[ ८४] ३ ध्यान और तपका करना वृथा !
व्रतप्रकरणके बाद ग्रन्थमें 'सम्मेदाचल' नामका एक प्र. करण दिया है और उसमें श्रीसम्मेदशिखरको यात्राका अद्भुत माहात्म्य बतलाते हुए ध्यान और तपकी बुरी तरहसे अवगणना की गई है !-'श्मशान भूमियों और पर्वतोंको गुफादिकोंमें करोड़ पूर्व वर्ष पर्यन्त किये हुए ध्यानसे भी अधिक फल सम्मेदशिखर के दर्शनसे होता है। इतना ही नहीं कहा गया, बल्कि 'पंचमकालमें तप और ध्यानकी सिद्धि नहीं होती अतः सम्मेदशिखर को यात्रा हो सर्वसिद्धिको करने वाली है' यहाँ तक भी कह डाला है !! और इस तरह आजकल के लिये ध्यान और तपका करना बिलकुल हो वृथा ठहरा दिया है !!! दो कदम आगे चल कर तो स्पष्ट शब्दों में इन दोनोंका निषेध हो कर दिया है और भव्यजनों के नाम यह आज्ञा जारो करदी है कि 'तपोंके समूहको और ध्यानोंके समूहको मत करो किन्तु जीवनभर यार बार सम्मेदशिखरका दर्शन किया करो !! उसोके एक मात्र पुण्यसे दूसरे हो भवमें निःसन्देह शिवपदको प्राप्ति होगी। यथाः
कोटिपूर्वकृतं ध्यानं श्मशानाद्रिगुहादिषु । तदधिकं भवत्येव फलं तदर्शनात् नृणाम् ॥१३॥ नैवसिद्धिः तपस्योः (!) ध्यानस्यैव कदाचन । तस्मिन्काले ह्यतो भूप ! सा यात्रा सर्वसिद्धिदा ॥१४॥ मा कुरुध्वं तपोवृन्दं भो भव्याः ! ध्यानसंहतिम् । xxx समं प्रत्येकवारं च आमृत्यु तस्य दशनम् ॥१७॥