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[ ८३ ] हो जाती थी और उनके अधिकृत मन्दिरों में बहुतसा सामान पहुँच जाता था, जिसके आधार पर वे खूब आनन्दके तार बजाते थे। इसीलिये उन्होंने अनेक व्रतोंके साथ उद्यापनकी बातको जोड़ दिया है । दुगुने व्रतके भयसे समर्थ लोग उद्यापन करने लगे; धनाढ्य स्त्री पुरुषोंसे तो थोड़ेसे व्रतोंका बनना भी मुशकिल होता है, फिर दुगुने व्रतोंकी तो बात ही दूर है, और इसलिये उनके द्वारा, अपनी मानमर्यादाको रक्षा करते हुए, अच्छी बड़ी स्केल (बड़े परिमाण) में उद्यापन होने लगे और उनसे भट्टारकों तथा उनके आश्रितोंका कितना ही काम सधने लगा। इस तरह उद्यापनको बातका प्रचार हुआ। अन्यथा, व्रतोंके साथ अनिवार्य रूपसे उद्यापन करने, और न करने पर दण्डस्वरूप दुगुने व्रत करनेकी बातको भगवान महावीरके शासनमें कोई स्थान नहीं है और न प्राचीन आगममंथों में ही उसका कहीं उल्लेख पाया जाता है। अपने व्रतकी समाप्ति पर उद्यापनादि रूपसे कोई उत्सव करना या न करना यह सब व्रतियोंकी इच्छा एवं शक्ति पर निर्भर है-व्रतविधान और उसके फलके साथ उसका कोई खास सम्बन्ध नहीं है। इसी तरह अभिषेक पूजनकी ग़रज़ अथवा उद्देश्यसिद्धिके लिये पंचा. मृतादिक अभिषेकको अपनाना और केला अंगूर अनार तथा लड्डू-फेनो-पकवान जैसे द्रव्योंसे पूजन करनाभी कोई लाज़िमी बात नहीं है। पूजनादिकी उद्देश्यपूर्ति दूसरे प्रकारसे भी की जा सकती है और कहीं अधिक अच्छे रूपमें की जा सकती है, जिसकी कुछ सूचना ऊपर की जा चुको है। अतः पूजनादिक
और उद्यापनमें धन न खर्च करने वालोंके लिये दुगुने व्रतकी इस व्यवस्थाको भट्टारकीय लीलाका ही एक परिणाम समझना चाहिये।