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भजध्वं तेन पुण्येन केवलेन शिवास्पदे । यास्यथ नात्र संदेहो द्वितीये हि भवेऽव्यये ॥१८॥
यह सब कथन जैनधर्मकी शिक्षासे कितना बाहर है, इसे बतलानेको ज़रूरत नहीं । सहृदय पाठक सहज हो में इसकी निःसारताका अनुभव कर सकते हैं । खेद है कि ग्रंथकारने इसे भो भगवानके मुखसे ही कहलाया है ! उसे यह ध्यान नहीं रहा कि मैं इस ग्रंथ में अन्यत्र कितनी ही बार इन दोनोंके करने की प्रेरणा तथा इनके सफल अनुष्ठानका उल्लेख भोकर आया हूं !! और न यहो ख़याल आया कि जिस ध्यान और तपके माहात्म्य से सम्मेद शिखर पूज्यताको प्राप्त हुआ है, उसीकी मैं इस तरह अवगणना तथा निषेध कर रहा हूँ !! अथवा प्रकारान्तरसं मुनिधर्मको भी उठा रहा हूं !!! हो, इस प्रकारको शिक्षा भट्टारकोंके खूब अनुकूल है -- उन्हें राजसी ठाठके साथ मौजमज़ा उड़ाना है, ध्यानादिके विशेष चक्करमें पड़ना नहीं है ।
४ मुक्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं !
प्रथमें, सम्मेदशिखरके दर्शनमाहात्म्य का वर्णन करते हुए, एक श्लोक निम्न प्रकारसे दिया है, जिसमें राजा श्रेणिक को सम्बोधन करते हुए कहा है कि 'इस (पाँचवें ) कालमें मानवों के लिये सम्मेद शिखरके (उसके दर्शन के) सिवाय शिव का - मुक्तिका - दूसरा और कोई उपाय नहीं है:अस्मिन्काले नराणां च मतो भो मगधाधिप ! श्रीमच्छिखर सम्मेदान्नान्योपायः शिवस्य वै ॥ २६॥
यह कथन जैन सिद्धान्तो के बिलकुल विरुद्ध है; क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रादि सभी प्राचीन जैनमन्थोंमें, जो पंचमकालके