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करो ('यतिराट् स पातु नो वः सदा' ४९१ ) ! हमारी संसारसे रक्षा करो ('नः पातु संसारतः' ४९४ ) !' साथही, उन्होंने पुण्योपार्जनकी प्रेरणा को और फिर राजा श्रेणिक को संबोधन कर 'इत्थं श्रेणिकभूप सर्वगदितं वृत्तं मया तेऽखिलम्' इत्यादि रूपसे वह उपसंहारात्मक अन्तिम वाक्य (पद्य नं० ४९७) कहा जो ऊपर उद्धृत किया जा चुका है और उसमें बतलाया है कि-- 'हे राजा श्रेणिक ! इस तरह श्री कुन्दकुन्दका यह सब पूरा निर्मल चरित्र मैने तुझसे कहा है, इसे तू चित्तमें धारण कर, यह पूज्योदयको लिये हुए पापसमूहका नाश करने वाला, मनको शुद्ध करने वाला, आनन्दका देने वाला, आगामी कालमें धर्मका बढ़ाने वाला और देवोंसे पूज्य है।'
इस प्रकार यह भूत भविष्यतादिके विवेकरहित ग्रंथकारका भगवान् महावीरके नाम पर असम्बद्ध प्रलाप है । ग्रंथकार को यह सब लिखते हुए इतनी भी होश रहो मालूम नहीं होती कि वह अपने कथनकं पूर्वापर सम्बन्धको ठीक समझ सके अथवा यह जान सके कि भगवान् महावीर कब हुए हैचतुर्थकालमें या इस पंचम (कलि ) कालमें - और उनकी क्या पोज़ीशन थी । और इसलिये उसे वह ख़बर नहीं पड़ी कि मैं भगवान् के मुख से भविष्य में होने वाले कुन्दकुन्द मुनिका जो वर्णन करा रहा हूं वह भविष्य वर्णनाके रूपमें ही होना चाहिये - भूतवर्णनाके रूपमें नहीं, और न यही समझ पड़ी कि सर्वज्ञ भगवान् के मुखसे कहे जाने वाले शब्द कितने संयत, कितने उदार, कितने गम्भीर और कितने सत्यमय होने चाहिये । इसीसे उसने उन्मत्तको तरह यद्वा तद्वा कहीं भविष्यकालकी क्रियाका और कहीं भूतकालकी क्रियाका प्रयोग कर डाला ! साथही, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, कहने योग्य और न कहने योग्य जो जीमें आया भगवान् के मुखसे कहला
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