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[ ६३ ] है। कुछ बातोंका दूँढियोंने उत्तरभी दिया है जिसका उल्लेख प्रन्थमें निम्न प्रकारकं वाक्योंके साथ किया गया है:
ढूंढ्या इत्युत्तरं श्रुत्वापि स्वपक्ष-पालनार्थमित्यूचुः । इति श्रुत्वापि पुनः लुकमतधारका ढूंढ्या इत्याहुः ।
इससे जान पड़ता है कि बहुतसे हूँ ढिये भगवानके समवसरणमें पहुँच गये थे ! उन्हें अपनी सभामें साक्षात् सामने बैठे देखकर भगवान श्रेणिकको कथा सुनानोभी भूलकर इतने आवेशमें भर गये और इतने उत्तेजित हो उठे कि वे अपनेको संभाल नहीं सके और इसलिये उन्होंने, जो कुछ कहती अनकहनी थी, वह सब कह डाली ! उन्होंने सब हूँढियोंको मूर्ख, मूढ, मृढमानस, मूढचित्त, महामुढ, सुबोधलववर्जित, मतिवर्जित, निर्विचार, मतिहीन, ज्ञातिहीन, क्रियाहोन, सर्वहोन, क्रियाकर्मविवर्जित, जिननिन्दक, जिनानाविमुख, धर्मलोपक, जिनमार्गनाशक, जिनधर्मनाशक, जैनघातक, जिनन, जिनागमन, जिनवाक्यन, जिनमंत्रराजन, सर्वन, मदोद्धत, मदोन्मत्त, खल, खलात्मा, खलाशय, क्रूर, अशुद्ध, असाधु, कुकुलान्वित, ज्ञानलेशोज्झित, भक्ष्याभक्ष्यविधेकरहित, भ्रष्टाचारो, अधम आदि कहकरही सन्तोष धारण नहीं किया, बल्कि उन्हें बगुलों से भी गये बीते, श्वपचवत्, निशाचरसम, जनंगमोपम (चाण्डालतुल्य), चाण्डालो से भी होन, म्लेच्छाचारप्रपालक, म्लेच्छ, जीवभक्षक, पशुतुल्य, दुर्गतिगामी और निगोदगामी तक कह डाला है !! इस प्रकरणके पिछले कुछ थोड़ेसे वाक्य नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं:
हंसा हंसा: हि भो मूर्खा: बका बकाश्च सुन्दरा। यूयं च बक-तुल्यापि नो सन्ति ध्यानमानसाः ॥३॥