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MARATHI
[६८ ] पापियो ! ऐसा निंद्यकर्म : तो व्रतकर्म विवर्जित और क्रियाहोन मातंग (चाण्डाल ) भी नहीं करते हैं । अरे जिननिन्दको! तुम चाण्डालोंकी बराबर भी कैसे हो सकते हो, तुम तो उनके बराबर भी नहीं हो, किन्तु निःसन्देह उनसे होन हो । अरे म्लेच्छो ! यह क्या साधुजनका लक्षण है ? हम साधु है-ऐसा झूठ मत बोलो । अरे ! कुक्रियाको छोड़कर जिनभाषित शुद्ध सुखकारी क्रियाका यत्नसे पालन करो। मूढो! तुमने आचार त्याग दिया है इससे दुर्गनिको जाओ; धर्ममार्गके नाशको ! अविवेकको मत धारण करो। जो लोग जिनबिम्ब, जिनमंदिर, जिनसिद्धान्तपुस्तक, जिनमतस्थ, दयाभाव, जिनयात्रा, जिनोत्सव, जिनधर्म और प्रभुके वचनादिको निन्दा करते हैं, वे जिनागममें मटेच्छ तथा जिनधर्मके नाशक माने गये हैं। ऐसा जानकर, अरे दुष्टो ! बिम्बकी-मूर्तिको-निन्दा नहीं करनी चाहिये । हमने जो आपको यह उपदेश दिया है वह अहंकारमदसे नहीं दिया किन्तु हितके लिये ही दिया है। यदि दुष्टो ! तुम्हारी निगोद जाने की इच्छा है तो खूब मूर्ति की निन्दा करो, जो धर्मका नाश करने वाली है।"
पाठकजन ! देखा कितनी भारी गालियोंकी यह वर्षा है ! पदपद पर और बातयातमें हूँ ढिया भाइयों के प्रति कितना निर्हेतुक अपशब्दोंका व्यवहार किया गया है !! कैसा दांत पोस पोसकर उन्हे कोसा गया है !! और उनपर कैसे नोचसे नीच आक्रमण किये गये हैं !!! भगवान महावीरका परम संयत मुख और ये शब्द !-ये कषायसे पूरित और संतप्त हृदयके उद्गार !! क्या कोई महावीरका सहृदयभक्त इन्हें भगवान
यहाँ 'ईदृश्यं निन्धकर्म' का अर्थ अनुवादकने "अपने मूत्र से अपनी शरीर की शुद्धि" दिया है, जो बिलकुल मनगढन्त तथा शरारतसे भरा हुआ है !!