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श्रेणिकको सम्बोधन करतेहुए, भगवान के मुंह से कहला
दिये
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ईशाः धर्ममार्गस्य नाशकाश्च खलाशयाः । ज्ञानलेोज्झिताः क्रूरा भविष्यन्ति न संशयः ॥१२१॥
भव्यभावयुता स्वल्पसंख्याढ्या मगधेश्वर ! विसंख्याढ्या नराः तस्मिन् भविष्यन्त्येव नेतराः ॥१२२॥
यहां पहले श्लोक प्रयुक्त हुआ 'ईदृशा:' ( इसप्रकार के ) पद बहुत खटकता है और वह ग्रंथकार की नासमझी का द्योतक है, जबकि उससे ठीक पहले, ग्रन्थ में ढूदियोंके स्वरूपका परिचायक कोई 'दूसरा श्लोक नहीं है और उससे भी पहले दूँ ढियों के सिद्धान्तों का खण्डन तथा उनके साथ भगवान का वादवि वाद चल रहा था । इस लोकसे ठीक पहलेका निम्न श्लोक और भी ज्यादा बेढंगा ( असंगत ) हैं और वह ग्रंथकारकी अच्छी ख़ासी मूर्खताका द्योतक जान पड़ता है
यत्प्रोक्ता वीरनाथेन श्रेणिकं प्रति भो बुधाः । भाविकालभवा वार्ता तथैव पश्यथाशुभा ॥ १२० ॥
इसमें कहा गया है कि 'हे बुधजनो ! महावीर स्वामीने श्रेणिक के प्रति जो भविष्यकाल सम्बन्धी बात कही है उसे तुम वैसी ही अशुभरूप में देखलो।' परन्तु एक तो हूँ ढ़ियों के सम्बन्ध में कोई बात भविष्य वर्णनाके रूपमें इससे पहले इस प्रकरण में कही नहीं गई, दूसरे जब भगवान अभी कथन कर ही रहे हैं और अगले दोनों लोक उन्हीं के वाक्य हैं तब ग्रंथकारका इस तरह से बीचमै बोल उठना क्या अर्थ रखता है ? वह उसकी मूर्खता नहीं तो और क्या है ?
जान पड़ता है ग्रन्थकारने बिना सोचे समझे कितने