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पूजनादिके लिये उन्हें प्रेरित करना था वे इस व्रतका फल उन्हें पहलेही कैसे सुना देते ! परन्तु तब तो उन्हें व्रतफल सुनने का ऐसा माहात्म्य बतलानाही नहीं चाहिये था। इसे मालूम करके तो लोगोंको प्रवृत्ति उस कर्मदहनवतके अनुष्ठान की भी नहीं रह सकती, जिसमें अनेक प्रकारसे अपने अभिमत पंचामृताभिषेक, जिन चरणों पर गन्धलेपन और सचित्त द्रव्यों से पूजन की प्रेरणा अथवा पुष्टि को गई है। क्योंकि उसकी उत्कृष्ट विधिका - और इसलिये अधिक से अधिक -- फल तो अगले जन्म में विदेहक्षेत्रका सम्राट होकर, जिनदीक्षा लेकर और अनेक तप तप कर मुक्तिका होना लिखा है, और इस धूत फलके श्रवणसे बिना किसी परिश्रमके ही सब पापका नाश होकर उसी जन्म में मुक्ति हो जाती है। इससे घूत करने की अपेक्षा उसका फल सुननाही अच्छा रहा ! फिर ऐसा कौन बुद्धिमान है जो सिद्धिके सरलसे सरल एवं लघु मार्गको छोड़कर कष्टकर और लम्बे मार्गको अपनाए ? ग्रंथकारकी इस मार्मिक शिक्षा और कर्मफलके नूतन आविष्कार पर तो लोगोंको सारे धर्म-कर्मको छोड़कर एक मात्र कर्मदहनवतके फलको ही सुन लेना चाहिये ! बस, बेड़ा पार है !! इससे सस्ता और सुगम उपाय दूसरा और कौन हो सकता है ?
ग्रंथ में एक स्थान पर उन मनुष्योंको जो सारे जन्म पापमें हो मग्न रहते हैं, इसो घूतके कारण शिवपद्की प्राप्ति होना लिखा है :
आजन्मपापमद्मा हि नरा: यास्यन्ति निश्चयात् । अस्यैव कारणात् भूप ! शिवास्पदे च शाश्वते ॥१२॥
- पृष्ठ २५४
परन्तु हमारे ख़याल से तो, उक्त श्लोक नं० १७८ की