________________
[ ७८ ]
मोजूदगी में, ऐसे महापापी मनुष्यों को भी घूतको उत्कृष्ट विधि के अनुष्ठानरूप इस द्राविडी प्राणायामकी ज़रूरत नहीं है-वे इस व्रत फलको सुनकर सहज ही में सब पापोंसे छूट कर मुकिको प्राप्त कर सकते हैं !
यहां पर मुझे यह प्रगट करते हुए बड़ा ही खेद होता है कि जो गुप्त रहस्यकी बात किसी तरह भगवान्के मुखसे अथवा ग्रंथकार के कलम से भव्यजीवोंके कल्याणार्थ निकल गई थी उसका प्रगट होना अनुवादक महाशय पं० नन्दनलाल (ब्र० ज्ञानचन्द्र) जी - वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागरजी - को सहन नहीं हुआ और इसलिए उन्होंने उसे छिपाने की चेष्टा करते हुए उक्त श्लोक नं० १७८ का अर्थ हो नहीं दिया !! संभव है कि उन्हें इसमें भगवान् की या ग्रन्थकार की भूल मालूम पड़ी हो अथवा अपनी अभीष्ट पंचामृताभिषेकादि क्रियाओंको बाधा पहुँचनेका कुछ भय उपस्थित हुआ हो और इसीसे उन्होंने उसपर पर्दा डालना उचित समझा हो !!! परन्तु कुछ भी हो, सत्यको प्रतिज्ञा को लिए हुए व्रती श्रावक होकर और एक अच्छे अनुवादकको हैसियत से उन्हें ऐसा कूटलेखन तथा कपटाचरण करना उचित नहीं था ! कोई भी सहृदय धार्मिक पुरुष उनको इस निरंकुशता और कपट कलाका अभिनन्दन नहीं कर सकता ।
२ धर्म और धनकी विचित्र तुलना !
कर्मदहनतकी विधि, और व्रतके फलको सुनकर राजा श्रेणिकने भगवान् से पूछा कि - 'आपने तो पंचमकालके मनुष्यों को निर्धन बतलाया है, फिर वे बिनाधनके व्रत कैसे करेंगे ? तब तो व्रतका वह फल उनके लिये नहीं बनता ।' उत्तरमें भगवान ने कहा- 'राजन् ! यदि पूर्वपापोंके उदयसे घर में दरिद्र हो तो कायसे प्रोषधसहित दुगुना व्रत करना चाहिये ।' यथाः
-