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[ ७९ ] भवद्भिः कथिता मयां नि:स्वा हि पंचमोद्भवाः । करिष्यन्ति कथं वृत्तं तद्ऋते नास्ति तत्फलम् ॥३०॥ गृहे यदि दरिद्रः स्यात्पूर्वपापो दयात् नृप । कायेन द्विगुणं कार्य व्रतं पोषधसंयुतम् ॥३१॥
यहां पर इतना और भी जानलेना चाहिये कि इस प्रश्नोतरसे पहले, प्रथमें व्रतकीजो उत्कृष्टविधि बतलाई गई है और जिसका संक्षिप्त परिचय नम्बर १ में दिया जाचुका है उसके अनुसार धनके खर्च का काम सिर्फ़ अभिषेकपुरस्सर पूजनके करने और पारणाके दिन एकपात्रको भोजन कराने में ही होता है, जिसका औसत अनुमान २००) रु० के करीब बैठता हैअर्थात् १५६ परणाओं के दिन पात्रोंका भोजन खर्च ४० रु० और १५७ दिनका अभिषेक-पूजन-खर्च १६०) रुपये । और इसलिये उक्त व्यवस्थासे यह स्पष्ट है कि यदि कोई मनुष्य यह सब खर्च न उठाकर शुद्ध प्रासुकजलसे हो भगवानका अभिषेक कर लिया करे और "वचो विग्रहसंकोचो द्रव्य पूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥" इस पुरातनविधिके अनुसार शरीर तथा बचनको परमात्माके प्रति एकाप करके हाथजोड़ने, शिरोनति करने, तथा स्तुतिपाठ पढ़नेरुप द्रव्यपूजा और ध्यानादि रूपसे मनको एकाग्र करके भगवानकी भावपूजा करलिया करे; साथ ही अपने भोजनमें से एक प्रास ही पहिले दानार्थ निकाल दिया करे तो इस प्रकारके पूजनादिके साथ १५६ प्रोषधोपवास और १५७ एकाशन करने तथा विकणदिके त्यागरूप उस सारे संयमका अनुष्ठान करनेपर भी, जिसका पोछे एक फुटनोटमें उल्लेख किया गया है, वह इस व्रतके फल को नहीं पासकेगा! फल-प्राप्तिके लिये उसे ३१३ दिनका उतना