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[ ७५ ] कुछ व्रतविधान सुनाया है । इस प्रकरणमें अष्टान्हिक आदि व्रतोंके नाम सामान्य रूपसे अथवा कुछ विशेषणों के साथ देकर और उनके विधिपूर्वक अनुष्ठानका फल दो तीन भवोंमें मुक्ति का होना बतलाकर 'कर्मदहन' नामके एक खास व्रतका विधान किया गया है। इस प्रतकी उत्कृष्ट विधि मूलोत्तर कर्म प्रकृतियोंकी संख्याप्रमाण १५६ प्रोषधोपवास एकान्तरसे और निरारम्भ करने होते हैं-अर्थात् पहले दिन मध्यान्हके समय एक बार शुद्ध भोजन, दूसरे दिन निरारम्भ अनशन (उपवास) फिर तीसरे दिन एक बार भोजन और चौथे दिन अनशन यह क्रम रहता है; भोजनके दिन पंचामृतादिके अभिषेकपूर्वक तथा जिनचरणों में गन्धलेपनपूर्वक सचित्तादि द्रव्योंसे पूजा की जातीहै, प्रत्येक उपवासके दिन उस २ कर्म प्रकृतिके नामोल्लेखपूर्वक एक जाप्य । १०८ संख्या प्रमाण जपा जाता है। साथ हो, विकथादिके त्याग रूप कुछ संयमका भी अनुष्ठान किया जाता है * । यह सब बतलानेके बाद प्रथमें इस व्रतके फल का वर्णन करते हुए लिखा है :
कर्मदहनव्रतस्य फलं ऋणु समाधिना ।। श्रवणाच्च यत्सर्वाहाः प्रलयं यान्ति देहिनाम् ॥१७॥ इसमें भगवान् महावीर राजा श्रेणिकको कर्म-दहन
+ अनुवादकने एक दिनके जाप्यका नमूना “ॐ ह्रीं मतिज्ञानावरणकर्मनाशाय नमः" दिया है !
* वह संयम विकथा, ग्रहारम्भ, स्त्रीसेवन, शृङ्गार, खट वा. शयन, शोक, वृथापर्यटन, अष्टमद, पैशून्य, परनिन्दा, परस्त्रीनिरीक्षण, रागोद्रकपूर्वकहास्य, रति, भरति, कुभाव, दुर्म्यान, भोगाभिलाष, पत्रशाक और अशुद्ध दूध दही-घृतके त्यागरूप कहा गया है।
(श्लोक १६८ से १७१)।