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[ ७३ ] स्याद्वादामृत अथवा विरोधमथनी अनेकान्तरसायनका सेवन किया होता तो उसकी कदापि ऐसी कलुषित मनोवृत्ति न होती
और न वह अपने तेरहपंथी भाइयोंको तरह ढूंढिया भाइयों परभी इस तरहसे जहर उगलता । उसे स्वतः यह समझमें आ. जाता कि ये लोग भी हमारी तरह जैनधर्मके उपासक हैं, उसकी मूल बातों ( तत्त्वों ) को मानते हैं और ये भी भगवान महावीर आदि सभी जैनतीथंकरों की पूजा-भक्ति करते हैं । पूजा-भक्तिका तरीका कितने ही अंशोंमें समान और कितने ही अंशांमें जुदा जुदा है, और ऐसा होना देशकालादि की परिस्थितियों की दृष्टि से बहुत कुछ स्वाभाविक है। भक्तिमार्ग बड़ा ही विचित्र तथा गहन होता है, वह सदा सबके लिये न कभी एक जैसा रहा और न रहेगा। अतः पूजा-भक्ति-उपासना की ज़ाहिरी, फरूआती एवं ऊपरी बातोंमें एक दूसरेके तरीको. को पूर्णतया न अपनाते और न पसन्द करते हुए भी एकको दूसरेसे घृणा करने, द्वेष रखने अथवा शत्रुता धारण करनेकी ज़रूरत नहीं है । सबको मिलकर प्रेमपूर्वक एक पिताकी संतान के रूपमें रहना तथा एक दूसरेके उत्थानका यत्न करना चाहिए, और प्रेमपूर्वक ही एक दूसरे की भूल, त्रुटि, गलती, अन्यथा प्रवृत्ति अथवा गलत तरीकेको सुधारना चाहिये-न कि ऐसे विषैले साहित्य द्वारा घृणा तथा द्वेषादिके भावको फैलाकरके, जिसका असर उलटा होता है।
निःसन्देह यह सब ऐसे दृषित साहित्यका ही परिणाम है जिसने परस्पर में कलहका बोज बोकर जैनधर्मके पतनका मार्ग साफ़ कर दिया है और जैनियोंकी शक्तिको छिन्न भिन्न करके उन्हें किसी भी कामका नहीं छोड़ा; प्रत्युत उनके सारे पूर्व गौरवको मिट्टी में मिलाकर उन्हें जनताको आंखोंमें हकीर (तुच्छ) बना दिया है ! जो लोग जानबूझकर ऐसे साहित्यकी