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[ ७२ ] बुधोत्तमाः । सुरेन्द्राणामारम्भे पापोत्पत्तिर्नास्त्येिव । पापारम्भोत्पत्तिः पुरुषकार्येषु भवेत् नात्र संशयः ।
इतिकल्पोक्तं श्रुत्वा जिनागमार्थज्ञायक ग्राह- भो लुंका अस्योत्तरं यूयं श्रुणुथ । XXX पुनरारम्भ फलं श्रुणुथश्रीवर्धमानवन्दनार्थं श्रोणिकाभिधोभूपेन्द्रः सकलसेनया सह किमगमत् वा एकएवागमत् तत्कथय भो मतिविवर्जिता: । "
भगवान् महावीरको समवसरण सभा दूँ ढियोंके साथ भगवानके शास्त्रार्थका ऐसा रूप नहीं हो सकता। इसमें ढूँढियों की ओर से कहे गये 'भो सज्जनाः' जैसे सम्बोधनपद और उनकी बातका उत्तर देने वाले वक्ता के लिए प्रयुक्त हुए 'लुंकमतेभघातने केशरितुल्यः' आदि विशेषणपद तथा आरंभ फलकी सिद्धिमें प्रमाण रूपसे प्रस्तुत किया हुआ श्रीवर्द्धमान की वन्दनाको श्रेणिकके सेनासहित जाने का उल्लेख, ये सब विषय ख़ास तौर से ध्यान देने योग्य है और वे इस विषयपर और भी अच्छा ख़ासा प्रकाश डालते हैं । अस्तु ।
इन सब प्रमाणोंसे ( प्रमाणों के पांच गणों से ) ग्रन्थका जालीपन भले प्रकार सिद्ध हो जाता है और किसी विशेष रूपटोकरण की ज़रूरत नहीं रहती । साथ ही प्रन्थकारको बुद्धि, योग्यता, कपटकला, कषायवशवर्तिता, उद्धनता, धूर्तता, साम्प्रदायिक कट्टरता, कलहप्रियता, और असत्यवादिता का भो कितना ही भंडाफोड़ होकर उसका बहुत कुछ वास्तविक रूप सामने आजाता है ।
यहां पर मैं इतना और भी कह देना चाहता हूं कि ग्रंथकार अपनी ऐसी लीलाओं तथा प्रवृत्तियोंके कारण जैनधर्मके संस्कारोंसे प्रायः शून्य मालूम होता है। उसने यदि जैनधर्मके