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महावीर के मुखसे निकले हुए शब्द मान सकता है ? अथवा कोई विवेकी पुरुष भाषासमिति और वचनगुप्तिकी चरमसीमाको पहुँचहुए एक सर्वश वीतराग तथा निर्मोही महात्माकी ओर से उसीके उपासकोंके प्रति ऐसी सभ्य और शिष्ट वचनवर्गणाकी कल्पना करसकता है ? कदापि नहीं । यह सब प्रन्थकार की साम्प्रदायिक कट्टरताके कुपरिणामस्वरूप उसकी निजी लोला, चालाकी, जालसाज़ी और धोकादेही है जो उसने अपनी तथा अपने जैसों को कृतिको भगवान् महावीर जैसे परम संयमी और परम वीतरागी आप्तपुरुषोंकी कृति बतलाया है, और इस तरह अपनी मूर्खता, कपायवासना एवं स्वार्थसाधनाके बरा उन्हें सभ्य संसारमै नोचे गिराने आदिको जघन्य चेष्टा की है । उसे कषायावेश एवं झूठकी धुनातनोकी धुनमें इतनोभो ख़बर नहीं रही कि वह भगवान महावोरकं मुखसे ढूंढियों की उत्पत्तिका वर्णन भूतकालकी क्रियाओं में कराने और भगवानके समवसरणमें ढूढियों को बिठलाकर उनके साथ भगवानका साक्षात् संवाद कराने से भगवान् महावीर और राजाश्रेणिकको कितना आधुनिक-- विक्रम संवत् १५२७ से भी कितने अधिक पोछेकाठहरा रहा है और इसलिये पब्लिक के सामने अपने झूठका कितना पर्दाफ़ाश कर रहा है ! सच है "दरोग़गोरा हाफ़िज़ा न बाशद " - अर्थात् झूठेकी स्मरणशक्ति ठोक काम नहीं देती । उसे अपने कथन के पूर्वापर सम्बन्धका उसके गुणदोष एवं परिणामका यथेष्ट भान नहीं रहता और इसलिये वह यद्वातद्वा जो जीमें आता है कह डालता है । ठीक यही हालत प्रन्थकार पं० नेमिचन्द्र की हुई जान पड़ती है । उसे इस प्रकरणके कहीं बिलकुल अन्तमें जाकर भविष्य कथन की बातका कुछ स्मरण हुआ है और इसीलिए उसने बिना पूर्वापरका सम्बन्ध ठोक जोड़े नीचे लिखे भविष्यकथन के दो लोक भो, मगधेश्वर राजा