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[ ६७ ] होन हो, क्रियाहीन हो और सबमें होन (नीच) हो, जैसे म्लेच्छ होते हैं वैसे हो निश्चय से तुम हो । म्लेच्छोंके और दुष्टात्माओंके जैसे खाद्य अखाद्य का कुछ भेद-विचार नहीं होता वैसेही लुंकाओ! तुम्हारे भी खाद्य अखाद्यका विचार नहीं है । सब लोग अपने अपने धर्ममें लोन और अपने अपने देवके पूजक हैं परन्तु तुमतो निःसन्देह जिनधर्मके नाशक ही हो। x x x हे लुकाओ ! शरीरके नवद्वार होते हैं, तुम अधमजन जीवोंकी रक्षाके लिये उन सबको कपड़ेसे क्यों नहीं बांधते ? हे लुंकाओ! खलपुरुपो ! यदि तुम सच्चे हो तो या तो नवोंद्वारोंको कपड़ेसे बांधो और नहीं तो मुख पर पट्टी बांधना भी छोड़ो । दुगत्माओ ! वस्त्र, वायु और थूकके योगसे जोवों के समूह मुखमें उत्पन्न हो जाते हैं और सदा वहीं मरते रहते हैं, इसमें संशय नहीं है। तुम सब प्रन्थों में इस बातको देख सकते हो । अतः दुष्टो ! जीवोंके भक्षणसे तुम साक्षात् निशाचरों (गक्षसों) के समान हो। निशाचर भी जीवभक्षक होते हैं । तुम रातको प्रासुक जल नहीं रखते । यदि उस समय मलमूत्रादिकी उत्पत्ति हो तो दुर्जनो! मुझे बतलाओ उसकी शुद्धिके लिये तब क्या करते हो ? यदि कुछ नहीं करते हो तो चाण्डाल को समान हुए कैसे नमोकार मंत्रका जप करते और सामायिक पाठ पढ़ते हो ? अशुद्ध अवस्था में तो सबकुछ करना व्यर्थ है, सब जगह पवित्रता को माना गया है।
8 यहाँ शायद भगवान को अपने शासनके और ग्रन्थकार को देवपूजा के निम्न वाक्यों का स्मरण ही नहीं रहा:
अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्पंचनमस्कार सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।१।। अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं स वाद्याभ्यन्तरे शुचिः ॥२॥