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जिनबिम्बं जिनागारं जिनसिद्धान्त-पुस्तकं । जिनमतस्थं दयाभावं जिनयात्रां जिनोत्सवम् ॥१०७॥ जिनधर्म प्रभोवांचं धर्माब्धिसोमसदृशं । इत्याद्यान् ये च लोकाश्च निन्दयन्त्येव ते मताः॥१०॥ म्लेच्छाश्च जिनधर्मस्य नाशकाच जिनागमे । इति ज्ञात्वा न कतव्या निन्दा विम्बस्य भो खलाः॥१०॥ इत्युपदेशमस्माभिदत्तो भवतां खल । अहंकारमदान्नैव तद्धि भद्रार्थमेव च ॥११०॥ निकोतेः यदि वाछा चेत् यष्माक स्यात्खलाः स्फुटं । तदा करुथ बिम्बस्य निन्दां धर्मस्य नाशिनीम् ॥१११॥
-पृष्ठ २०२ से २०६ इन वाक्योंमें भगवान हूँ ढियासे कहते हैं-"अरे मूखों ! हंस हंस ही होते हैं और सुन्दर बगुले, बगुल ही,परन्तु तुम तो बगुलों के बराबर भी ध्यानी नहीं हो । तुम दुष्टात्माओंके तो क्रियाका लेशभो नहीं है, और जहां क्रियाशुद्धि नहीं वहा धर्म भी नहीं होता । मूढो ! तुम्हारे तो प्रत्यक्ष लच्छाचार दिखलाई पड़ता है, अतः तुम भ्रष्टाचारके पालने से म्लेच्छोंके समान हो । जिह्वास्वादकं वशवर्ती होकर तुमने सारा शोभना. चार त्याग दिया है और इसलिये मुनिगृहस्थ-सम्बन्धी सारे धर्मसे हो तुम हाथ धो बैठे हो। तुम क्रियाहीनांने प्रासुक प्रासुक करके सारी वस्तुओं को हो अंगीकार कर लिया है। तुम्हारे भक्ष्याभक्ष्य का कुछभी विवेक नहीं है। जिसतरह चाण्डाल दिखाई देता है उसीतरह तुमभी दिखाई पड़ते हो, इसमें सन्देह नहीं। तुम जिनबिम्बकी निन्दा करने वाले जाति