________________
[ ६२ ] किया है कि ढूंढकमत (स्थानकवासी सम्प्रदाय) की उत्पत्ति उनसे पहलेही हो चुकी थो; इतनाही नहीं बल्कि निन्न वाक्य द्वारा वे यहाँ तकभी स्पष्ट कह गयेहैं कि इस वक्त हूँ ढिया लोग सब जगह खूब फैले हुए हैं !!t
नाम्ना ढूंढ्याश्च विख्याता क्रियाकर्मविवर्जिताः । सर्वत्र विस्तृता ते च ह्यधुना भो बुधोत्तमाः ॥१५२॥
इसके सिवाय, भगवानने, भो लुकमतधारकाः, भो लुंकाः, भो ढूंख्याः, इत्यादि सम्बोधन-पदोंके द्वारा ढूंढियोंको साक्षात् सम्बोधन करके कितनोही बाते गद्य-पद्यमें कही हैंउन्हें पूजनविधान तथा जिनबिम्बदर्शनादिके लिये, क्रोध भरे अपशब्दोंके साथ, उनके पैतालीसा +, जोवाभिगम, शाताकथा, उपासकदशा, सूत्रकृतागम और भगवतीस्त्रादि ग्रन्थोंको देखने. उनके अनुसार चलने अथवा उनका लोप कर देनेको भो कहा
+ अनुवादक ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्र (क्षुल्लक ज्ञानसागर ) जीने श्लोकके उत्तरार्द्धका, जिसमे यह बात कही गई है, अर्थ ही नहीं दिया और न यही सूचित किया कि इस वाक्यका अर्थ उनमे नहीं बन सका, जो अतिसुगम है ! यह है आपके निष्कपट व्यवहारका एक नमूना !! आपकी लीलाओके विशेष परिचयके लिये तो 'अनुवादककी निरंकुशता' वाले प्रकरणको देखिये।
पैंतालीसाभिधे अन्ये' इन शब्दों में पैंतालीस' या 'पैतालीसा नाम के जिस ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है उस नामका कोई एक ग्रन्थ हटियोंके यहाँ देखने अथवा सुननेमें नहीं आता। संभव है कि यह श्वेताम्बरोंके ४५ आगम ग्रंथोंकी तरफ ही मूर्खतापूर्ण इशारा हो, जिनमें से हूँ दिया भाई बहुतसे ग्रंथोंको प्रमाण नहीं मानते।