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[ ६१ । अपनो उसो भाविक वृत्तान्त वर्णनाके सिलसिलेमें, राजा श्रेणिकको ढूंढियों (स्थानकवासी जैनों) का कुछ वर्णन सुनाने बेठे हैं, जिसे प्रथम 'हूँढकमतोत्पत्ति' नाम दिया गया है। परन्तु ढूँढक मतको उत्पत्तिका इस प्रकरणमे प्रायः कुछ भी इतिहास नहीं है-सिर्फ इतना कहा गया है कि श्वेताम्बर मतमें लुंका (लौका शाह ) सम्बत् १५२७ में उत्पन्न हुआ । उसके मतमें बहुतसे भेद हुए, कोई जिनपूजाके निन्दक है, कोई जिन बिम्बोंक दर्शन-पूजनसे पराङ्मुख हैं, कोई तीर्थयात्राओं को निन्दा करते हैं, कोई जैनमन्दिरों तथा प्रतिष्ठाओंके निषेधक हैं, और ये सब जिनमार्गके नाशक हुए हैं (बभूवुः)। बाकी सारा प्रकरण दिगम्बर तेरहपन्थियोंको तरह दूढियोंके साथ भगवान्के लड़ने झगड़ने, उनकी पूजनादिसम्बन्धी कुछ मान्य. ताओंका खण्डन करने और उनपर अविश्रान्त गालियोंकी वर्षा से भरा हुआ है। मालूम होता है 'अथापरंशृणुध्वं भो', इन शब्दोंके साथ प्रकरणका प्रारम्भ करतेही भगवान् एक दम विचलित हो उठे हैं, उन्होंने भविष्यवर्णनाको अपनी बात (प्रतिज्ञा) को भुला दिया है और वे ढूंढियोंकी उत्पत्तिका वर्णन एक अतीत घटनाके रूपमें करने चले हैं ! उन्होंने उसके लिये प्रायः आसीत. अभूत, जाताः, बभूवुः जैसी भूतकालीन क्रियाओंका प्रयोग किया हैx और उनके द्वारा यह सूचित * यह पूरा श्लोक इस प्रकार है:
अथापरं शृणुध्वं भो स्वेतवासोमते खलु।
लुक्काभिधः कुधीरासीत्सर्वधर्मविनाशकः ॥१४॥ x अनुवादकको भी यह बात कुछ खटकी है और इसलिये उसने कहीं कहीं हिन्दी पाठकोंको धोखेमें डालते हुए, भूतकालकी क्रिया का अर्थ भविष्यकालकी क्रियामे दे दिया है। -देखो, पृष्ठ १८० ।