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[ ५५ । न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे जैसे वाक्यसे प्रकट है। उनके द्वारा इसतरह विस्तारपूर्वक और लड़झगड़कर अपनी पूजाअर्वाका विधान नहीं बन सकता । स्वामी पात्रकेसरीने तो अपने स्तोत्रमें 'त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिताःकिन्तु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः' जैले वाक्य द्वारा स्पष्ट बतला दिया है कि केवलशानी भगवान्ने इन पूजनादि क्रियाओंका उपदेश नहीं दिया; किन्तु भक्त श्रावकोंने स्वयं हो ( अपनी भक्ति आदि के वश होकर ) उनका अनुष्ठान किया है-उन्हें अपने व्यवहार के लिये कल्पित कियाहै। और यह बहुत कुछ म्वाभाविक है। ऐसी हालतमें भगवान् महावोरके मुखसे जो कुछ यद्वातद्वा अपनी इच्छानुकूल कहलाया गया है और उसमें तेरहपन्थियों आदिके प्रति जो अपशब्दोंका व्यवहार किया गया है उससे भगवान महावीरका कोई सम्बन्ध नहीं है. उनका ज़रा भी उसमें हाथ नहीं है-वह सब वास्तव में प्रन्थकारक संतप्त एवं आकुल हृदयका प्रतिबिम्ब है, उसकी अपनी चित्तवृत्तिका रूप है, और इसलिए उसकी निजी कृति है। अपनी कृतिको दूसरे को प्रकट करना अथवा उसके विषय में ऐसी योजना करना जिससे वह दूसरे की समझली जाय, इसोका नाम जालसाज़ी है और इस जालसाज़ी से यह प्रन्थ लबालब भरा हुआ है। इसलिए इसे जाली कहने में ज़रा भी अत्युक्ति नहीं है।
अपनी इस कति परसे ग्रन्थकार पंडित नेमिचन्द्र इतना मूर्ख मालूम होता है कि उसे प्रन्थरचनाके समय इतनी भी तमीज़ (विवेक-परिणति ) नहीं रही है कि मैं कहना तो क्या
इस विषयके विशेष विवेचनादिके लिये लेखककी उस लेखमालाको देखना चाहिये जो कुछ वर्ष पहले 'उपासना-विषयक समाधान' नामसे जैनजगत्में प्रकट हुई थी।