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[ ५७ ] यूयं तदधिकाः कि वै अतः उत्थापितं प्रभोः। वाक्यं सर्वेन्द्रपूज्यं च सर्वत्रापि निरंकुशम् ॥१॥ वदध्वं पुनः भो मूर्खा ह्यसत्याः स्युरिमाः क्रियाः । सर्वे ग्रन्था असत्याः स्युः सर्वसन्देहनाशकाः ॥८२॥ युष्माकं यदि श्रद्धा स्यात् दृढ़ा जिनागमस्य वै । तदा किं न कुरुध्वं भो तन् वाक्यं शिवदायकम् ॥३॥ पक्षपातं त्यजध्वं च ग्रन्थपक्षं जगन्नुत्तम् । यूयं श्रद्धानिका नित्यं कुरुध्वं धर्मसिद्धये ॥४॥
-पृष्ठ १६३ से १६७ पाठकजन ! देखा, कितनी भारोझडपका यह उल्लेख है ! इसी तरहका और भो कितनाही संघर्षात्मक क्थन है, जो भट्टारकोंको-प्रन्थकारकं शब्दों में जिनात्तपुरुषों को-गुरु न माननेसे सम्बन्ध रखता है, जिसमें भट्टारकोंको गुरु न माननेवालोंको सप्तम नरकगामी तक बतलाया है !* और जिसे यहां छोड़ा जाता है । अस्तु; इतनो खैर हुई कि ग्रंथकारने उत्तर में तेरहपन्थियोंको कुछ बोलने नहीं दिया, नहीं तो समवसरण सभाका रंग कुछ दूसरा ही हो जाता! और इस तरहसे निरर्गल बोलने तथा पूछने वाले भगवान्के ज्ञान-विज्ञानकी सारी कलई खुल जाती !!
___इस प्रकार ग्रंथकारने अपनी इस कृतिद्वारा भगवान् महावीर जैले परमवीतरागी और ब्रह्मज्ञानी पूज्य महान पुरुषको एक अच्छा खासा पागल, विक्षिप्तचित्त, अविवेको, कषायवशवर्ती
* येऽधमा नैव मन्यन्ते गुरु ज्ञानस्य दायकम् । ते यास्यन्ति न संदेहः सप्तमे वभ्रकूपके ॥
पृ०॥ १७७॥