________________
[ ५८ ] और कलुषितहृदय, क्षुद्रव्यक्ति प्रतिपादित किया है। उसका यह घोर अपराध किसी तरह भी क्षमा किये जानेके योग्य नहीं है। एक म्वार्थसाधु पामर मनुष्य अपनो स्वार्थसाधना में अंधा होकर और कषायोंमें डूब कर जाने-अनजाने पूज्यपुरुषों तक को कितना नीचे गिरा देता है, यह इस प्रकरण से बहुत कुछ स्पष्ट है, जिसमें यहां तक चित्रित किया गया है कि भविष्य में एक खास ढंग से अभिषेकपूजाको न होते हुए देखकर भगवान् एक दम बिगड़ बैठे हैं ! ग्रंथकारने अपनो कुत्सित वासनाओं और कषायभावनाओंको चरितार्थ करने के लिये भगवान् महावीरके पवित्र नामका आश्रय लियाहै,उसे अपना आला अथवा हथियार बनाया है अर्थात् बातें अपनो, कहनेका ढंग अपना
और नाम भ० महावोरका! उसकी इस कृतिमें साफ तौर पर भट्टारकानुगामियोंकी तेरहपंथियोंके साथ युद्धको वही मनोवृत्ति काम करती हुई दिखलाई दे रही है जिसका पहले लेखमें उल्लेख किया जा चुका है। इसके सिवाय इस सारे वर्णनमें और कुछ भी सार नहीं है। भगवान् महावीर जैसे परम विवेकी और परम संयमी आप्तपुरुषोंका ऐसा असम्बद्ध, सदोष और कषायपरिपूर्ण बचनव्यवहार नहीं हो सकता । ऐसे बचनों अथवा प्रयों को जिनवाणी कहना-जिनमुखोत्पन्न बतलाना-जिनवाणीका उपहास करना है। यदि सचमुच जिनवाणी का ऐसा ही रूपहो तो उसे कोई भी सुशिक्षित और सहृदय मानव अपनानेके लिये तय्यार नहीं होगा।
इसके सिवाय, किसी भी सभ्य मनुष्यको यह बात पसंद नहीं आती कि वह अपनी पूजा प्रशंसाके लिये दूसरों को साक्षात् प्रेरणा करे, फिर मोहरहित वीतरागी आतपुरुषोंकी तो बातही निराली है-उन्हें वीतराग होने के कारण पूजाप्रशंसा से कोई प्रयोजन ही नहीं होता; जैसाकि स्वामी समन्तभद्र के