________________
[ ६० ] चाहता हूं और कह क्या रहा हूं! वह कहने तो चला भगवान महावीरके मुखसे निकला हुआ अविकल भाविक वृत्तान्त और सुना गया अपने संतप्त हृदयकी बेढंगी दास्तान !! जिस परनिन्दाको उसने इतनी बुराईको और जिसका इतना भारो भयदूर परिणाम बतलाया, उसोको उसने खुद अपनाया है और उससे उसका ग्रंथ भरा पड़ा है !!! क्या दूसरोंको उपदेश देना ही पंडिताईका लक्षण है-खुद अमल करना नहीं ?
समझमें नहीं आता, आचार्य कहलाने वाले शांतिसागर. जोने ऐसे कषायवर्धक और साम्प्रदायिक विद्वेषमूलक जाली ग्रंथ को कैसे पसंद किया, क्यों कर अपनाया और किस तरह वे उसकी प्रशंसा करने बैठ गये!! क्या उन्होंने भगवान् महावीर को ऐसा हो कलुषितहृदय, अविवेकी, असभ्य और योंहो हवासे बात करनेवाला उन्मत्त प्रलापी एवं क्षुद्र प्राणी समझा है ? क्या इसी रूपमें उनके ऐसे ही गुणोंका चिन्तवन करते हुएवे उनका ध्यान किया करते हैं ? और ऐसेहो बेढंगे प्रन्थोंको वे जिनवाणी समझते हैं ? अथवा यह समझ लिया जाय कि ये खुद भी ग्रंथकारके रंगमें रंग हुए हैं ? बड़ो ही कृपा हो यदि आचार्य महाराज स्वयंहो इस विषयका खुलासा प्रगट करने का कष्ट उठाएँ । और यदि वस्तुतः किसीके प्रभावमें पड़कर या वस्तुस्थितिको ठीक न समझनेक कारण उनसे भूल हो गई है तो उसका खुले दिलसे प्रायश्चित्त कर डालें, और अपने संघमें ऐसे क्षित प्रन्थों के प्रचार को रोक देखें । इसीमें उनके पदकी शोभा है।
५ हूँ ढियों पर गालियों की वर्षा दिगम्बर तेरहपन्थियोंसे उस मारो झडपके बाद जिसका ऊपर नं०४ में उल्लेख किया जाचुका है, भगवान महावीर,