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[ ४६ ] किया गया मालूम नहीं होता बल्कि अधिकांशमें ग्रंथकारके द्वारा कल्पित किया गया और कुछ इधर उधरके भूतवर्णना वाले आधुनिक भट्टारकीय प्रन्थों परसे अपनी नासमझोके कारण उठा कर रक्खा गया जान पड़ता है। और इसीसे वह इतना बेढंगा बन गया है।
४ तेरापंथियोंमे भगवान् की झड़प ! प्रथमें भगवान् महावीरके मुखसे भविष्यकथनक रूपमें जो असम्बद्ध प्रलाप कराया गया है वह नं. ३ में दिये हुए कुन्दकुन्दके प्रकरणके साथ ही समाप्त नहीं होता बल्कि दूर तक चला गया है। अगले प्रकरणोंको पढ़ते हुए भी ऐसा मालूम होता है मानो भगवान् कहीं कहीं तो ठीक भविष्यका वर्णन कर रहे हैं और कहीं एकदम विचलित हो उठे हैं और उनके मुखसे कुछका कुछ निकल गया है-कथन का कोई भी एक सिलसिला और सम्बन्ध ठीक नहीं पाया जाता । कुन्दकुन्द-प्रकरण के अनन्तर अगले कथनका जो प्रतिज्ञावाक्य दिया है वह इस प्रकार है:
अथापरं शृणु भूप पंचमसमयस्य वै । वृत्तान्तं भाविकं वक्ष्ये सर्वचिन्तासमाधिना ॥४६॥
इसमें साफतौरपर पंचमकालके दूसरे भावी वृत्तान्तके कथनकी प्रतिज्ञा करते हुए राजा श्रेणिकसे उस वृत्तान्तको सुननेकी प्रेरणा की गई है । परन्तु इसके अनन्तर ही, भावी वृत्तान्तकी बातको भुलाकर, भगवान्ने अभिषेकादि छह क्रियाओंका उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया है ! और उसके द्वारा वे खुद ही अपनी पूजा-अर्चा का विधान करने बैठ गये हैं ! यहां तक कि जपक्रियाके मंत्रों में उन्होंने अपना नाम भी