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[ ४८ द्वारा उस प्रकारसे पूजनको साक्षात् प्रेरणा भी की अथवा आशा तक दी है। साथ हो ऐसे प्रत्येक द्रव्यसे पूजनका फल ही नहीं बतलाया बल्कि इन द्रव्योंसे पूजन करके फल प्राप्त करने वालोंकी आठ कथाएं भी दे डालो हैं *, जिससे इस प्रकारके पूजनकी पुष्टिमें कोई कोर कसर बाकी न रह जाय ! शेष जप, स्तुति, ध्यान और गुरुमुखसे शास्त्रश्रवण । नामकी क्रियाओंका विधान भी भगवान्ने प्रेरणा तथा फलवर्णनाके साथ किया है परन्तु उनके विषयमें भविष्यका कोई ख़ास उल्लेख नहीं किया गया । इसके बाद वे फिरस पूर्णाहुतिक तौर पर उक्त छहों क्रियाओंका उपदेश देने बैठ गये है ! और इतने पर भो तृप्त न होकर थोड़ी देर बाद उन्होंने जलगंधाक्ष
* ये कथाएं पंचमकालके भाविक वृत्तान्त के वर्णनमे बहुत कुछ असम्बद्ध जानपडती हैं, और इनमे यह कथन अगले भविष्यकथन की प्रस्तावना या उत्थानिका की कोटिये और भी ज्यादा निकल जाता है तथा एक प्रलापके रूपमे ही रहजाता है ।
__ ग्रंथोंकी स्वत: स्वाध्यायकर लोग कहीं भक्त भट्टारकोके शासनसे निकल न जायं-उनपर नुक्ताचीनी करनेवाले तेरहपंथी न बनजायं-इसीसे शायद गुरुमुखमे शास्त्रश्रवणकी यह वात रक्खीगई जान पड़ती है । अनुवादकजीने 'ग्रन्थान् भव्या: गुरोरास्यात् शृणुध्वम्' का अर्थ "ग्रन्थोका स्वाध्याय गुरुमुखसे ही श्रवण करना चाहिये" देकर इसकी मर्यादा को और भी बढ़ा दिया है, परन्तु खेद है कि वे अपने इस वाक्यमे प्रयुक्त हुए 'ही' शब्दपर खुद अमल करतेहुए नज़र नहीं आते !!
इन क्रियाओंके साथमें भविष्यका कोई वर्णन न रहनेसे इनका कथन प्रतिज्ञात भाविक वृत्तान्त के साथ औरभी असंगत होजाता है और बिलकुल ही निरर्थक ठहरता है।