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इसके बाद यह दुहाई देते हुए कि ग्रंथोंमें भद्रबाहु, माघनन्दी, जिनसेन, गुणभद्र, कुन्दकुन्द, वसुनन्दी और सकलकीर्ति आदि योगोन्द्रोंके द्वारा पूजा स्नानादिकी वे ही सब क्रियाएं रखी गई हैं जो वीतराग भगवान् तथा गणधरादिकने कही हैं, यहां तक कह डाला है कि उन क्रियाओंका उत्थापन करने वाले कपटी मनुष्य दुःखोंसे भरे हुए सातों नरकोंमें क्यों नहीं जायंगे ? भगवान के वचनको लोपनेसे मूढ मानी पुरुष निश्चयही नाना दुःखों की खान निगोदों में पड़ेंगे ।
अन्तमें बहुत कुछ संतप्त होकर भगवान उन तेरहपन्थियों आदिको सम्बोधन करते हुए उनसे इस प्रकार पूछने और कहने लगे हैं
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'बतलाओ तो सही, किस ग्रंथके आधार पर तुमने गृहस्थोंकी इन छह क्रियाओं (पंचामृत अभिषेक, भगवत् चरणों पर गंधलेपनको लिये हुए सचित्तादि द्रव्योंसे पूजा, स्तुति, जप, ध्यान, गुरुमुख से शास्त्रश्रवण ) का लोप किया है ? यदि तुम्हारे जिनागम की श्रद्धा है तो प्रतिदिन छह क्रियाओंको करो । मूढ़ो ! हृदयोक्तिको छोड़ो और वसु राजाकी तरह ग्रंथों का लोप मत करो। अहो मूर्खो ! मतिश्रुतावधिनेत्रधारक यो गियोंने तो इन अभिषेकादि संपूर्ण क्रियाओं में कोई दोष देखा नहीं, तुम्हारे तो मूढ़ो ! मतिज्ञानादि सद्गुण अल्प मात्रा में भी दिखाई नहीं देते, फिर बतलाओ तुम बुद्धिविहीनोंने किस ज्ञान से अभिषेकादि क्रियाओंमें प्रदोष देखा है ? प्रभुके चरणों पर चन्दनादिसे लेप करनेमें क्या दोष है ? दीपकका उद्योत करने
+ तत्क्रियोत्थापकाः किन्न यास्यन्ति ये च सप्तसु । श्वभ्रषु दुःखपूर्णेषु नरा: कापट्यपूरिताः || ६९४ ॥ प्रभोर्वाक्य प्रलोपेन ते मूढा मानसंयुताः । यास्यन्ति वै निकोतेपु नानादुःखकरेषुच ||६९८ ||