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[ ५२ ] उठाकर उसके बहाने उन्हें फिर प्रकारान्तरमे खूब कोसा गया है कहा गया है कि ऐसे निन्दक लोग अगले जन्ममें अन्धे, बहरे, गंगे, कुबड़े, सदा रोगी, विकलांगी, दारिद्री, नपुंसक, कुरूपो, असुरोले, दुःखभोगो, पुत्रपौत्रादि-रहित, सदा शोको, भाग्यहीन, दुर्बुद्धि, क्रूर, दुष्ट, खल, ज्ञानशून्य, मुन्यादि-वर्जित (साधु आदिके सत्संग रहित अथवा निगुरे), धर्ममार्गपरान्मुख, गुणमानविहीन और दूसरों के घर पर नौकर होते हैं (होगे); प्रतिपच्चन्द्रमाको तरह (शोध) मर जाते हैं, ८ . १२ वे, १६ वें वर्ष तथा जवानी में हो मरणको प्राप्त हो जाते हैं और इस लोक तथा परलोकमें धूर्त * बन जाते हैं । साथहो यहभी कहा गया है कि प्राणियों के शरीरमें जो भी कष्टदायक दुःख होते हैं वे सब परनिन्दाके फल हैं। और जो लोग प्रत्यक्षमें (सामनेहो) निन्दा करते हैं उन्हें चाण्डालके समान समझना चाहिये।
* मूलमे 'धवाः' पद है और वह यहाँ धूतों का वाचक है। हेमचन्द्रादिके कोशों मे भो 'धवः धूर्ते नरेपत्यौ' आदि वाक्यों के द्वारा 'धव' शब्द को धूर्तवाचक बतलाया है। परन्तु अनुवादकसंपादक ब. ज्ञानचन्द्रजी महाराजने अपनी नूतनाविष्कारिणी शक्तिके द्वारा बड़ी निरंकुशताके साथ उसका अर्थ विधुर तथा विधवा कर दिया है
और लिख दिया है कि "इस लोक तथा परलोक में विधुर अथवा विधवा हो जाते हैं" !!
+ फलादेशकी इस फिलासॉफ़ीने जैनधर्मकी सारी कर्म-फिलासॉफ़ीको लपेट कर बालाएतात रख दिया है !
* पिछले दोनों वाक्योंके सूचक श्लोक इस प्रकार हैं :ये ये दु:खाश्च जायंते प्राणिना दु:खदायकाः । ते ते ज्ञ याः शरीरेषु परनिन्दाया मो फलम् ॥ ६७९॥ प्रत्यक्षं येऽत्र मूढा वै निन्दा कुर्वन्ति सर्वदा। ज्ञयाः श्वपचसा तुल्याः स्वमतस्य क्षयंकराः॥१८॥