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में, जिनांकस्थित यक्षोंका पूजन करनेमें, धूप जलाने में, रात्रि को पूजन करनेमें, जिनातपुरुषों (भट्टारकों) के मार्गवर्धक वात्सल्य में, पुष्पसमूह से जिनचरणकी पूजा करनेमें और केला, आम तथा अंगूरादि फलोंसे पूजा करनेमें क्या दोष है ? इत्यादि संपूर्ण क्रियाएं जिननाथने आगममें कही हैं, तुमने अपनो मूढबुद्धिसे उन्हें छोड़ दिया है । अतः तुम जिनेन्द्रकी आशा भङ्ग करने वाले और कुमार्गगामी हो, श्राद्ध ( श्रद्धावान् श्रावक) नहीं हो, जिनाशाके लोपले निष्फल हो गये हो । जहाँ आशा (आज्ञापालन ) नहीं वहाँ धर्मका लेशभो नहीं, अतः तुम निःसन्देह कुद्धा पालक हो। अरे! जिनवचन में यदि तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा हो तो अभिषेकादि सत्क्रियाओंको अङ्गीकार करो। मूढो ! बतलाओ तो सही, किसको आशासे तुमने अभिषेकादि मुख्य क्रियाएं छोड़ो है ? प्रन्थ खोलकर दिखलाओ। दुष्टो ! बोलो, ग्रंथोंके अनुसार तुमने ये क्रियाएं छोड़ी हैं या अपनी मतिके अनुसार ? जिनमुखोत्पन्न प्रथोंकी आशा तो तोमो लोकमै सभी देवेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र और खचरेन्द्र मानते हैं, जिनेन्द्रकी आशाके बिना सुरेन्द्र कहीं भी कोई काम नहीं करते, फिर बतलाओ अरे मत्यों ! तुमने परम्परा से चली आई इन अभिषेकादि क्रियाओंको कैसे उत्थापित किया है ? जिनाशा लोपनेकी सामर्थ्य तो देवेन्द्रोंकी भी नहीं होती, मूढो ! तुमने कैसे उसका लोप कर दिया ? क्या तुम उनसे भी बड़े हो और इसलिये तुमने सर्वेन्द्रपूज्य प्रभुके वाक्य का उत्थापन कर दिया है ? अरे मूर्खो ! बोलो, क्या ये सब क्रियाएं असत्य हैं ? यदि असत्य है तो फिर सारे ग्रंथ झूठे ठहरेंगे। तुम्हारे यदि जिनागमकी श्रद्धा है तो फिर आगम वाक्यके अनुसार क्यों नहीं चलते ? पक्षपातको छोड़ो और प्रथपक्ष के अनुसार 'चलो ।'