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[ ४९ ] तादि जुदे जुदे द्रव्यों से पूजनका वहो राग पुनः छेड़ दिया है !!
हां, बीच बीच में जब कहीं उन्हें दिगम्बर तेरहपन्थी नज़र पड़ गये हैं या उनसे भी चार कदम आगे तारनपन्थी और स्थानकवासो दिखलाई दे गये हैं तो भगवान् अपनेको संभाल नहीं सके, वे आधेशमें आकर एकदम उन पर टूट पड़े हैं और समवसरणमें बैठे बैठे हो भगवान्की उनके साथ अच्छी खासी झड़प हो गई है ! भगवान्ने उन्हें मूर्स, मूढ, कृतघ्न, गुरुनिन्दक, आगमनिन्दक, जिनागमप्रघातक, जैनेन्द्रमतघातक, मदोद्धत, कर, सुबोधलववर्जित, क्रियालेशोज्झित,वचनोत्थापक, मिथ्यात्वपथसवक, मायावी, खल, खलाशय, जड़ाशय, धर्मध्न, धर्मबाह्य, कापट्यपूरित,जिनाज्ञालोपक, कुमार्गगामी और अधम आदि कहकर अथवा इस प्रकारकी गालियां देकर ही संतोष धारण नहीं किया बल्कि उन्हे श्वपचतुल्य (चाण्डालोके समान) और सप्तम नरकगामो तथा निगोदगामी तक बतला दिया है!!! अभिषेक और पूजन क्रियाओंके सम्बन्धमें भविष्यवर्णना रूपले जो कथन किया गया है वह प्रायः उन्हींको लक्ष्य करके कहा गया है* । ये पंचमकालके (कलियुगी) लोग इन क्रियाओं
* इस प्रकरणके भविष्यवर्णनावाले अधिकांश वाक्य इस प्रकार है, जिन्हें पढ़कर विज्ञ पाठक स्वयं जान सकेंगे कि वे तेरहपंथियों आदि को लक्ष्य करके ही लिखे गये हैं:
(१) कलौ वै मानवा मूढा चाभिषेकक्रियामिमाम् । नूनमुत्थापयिष्यन्ति स्वस्वमतिविपर्ययात् ॥ ५०९ ॥ शास्त्राणां वचनं मूर्खा लोपयिष्यन्ति निश्चयात् । नूननं नूतनं मागं करिष्यन्ति स्वकीर्तये ॥ ५९० ॥ दास्यन्ति सर्वग्रन्थानां दोषं स्वमतिसम्बलान् । संस्कृतं प्राकृतं ग्रन्थं वाचयिष्यन्ति नैव च ॥ ५११ ॥