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[ ४७ ] 'सर्वकर्मरहिताय श्रीमहावीरजिनेश्वराय सदा नमः' इत्यादि रूप से जपने के लिये बतला दिया है !! साथ ही अपने परम आराध्य कुन्दकुन्दके नामका मंत्र देना भी वे नहीं भूले हैं और उन्होंने कुन्दकुन्दके नाम वाले मंत्रको तीन बार 'नमोस्तु' के साथ जपने की व्यवस्था करके उनके प्रति अपनी गाढ़ श्रद्धा-भक्ति का परिचय दिया है !!! अभिषेक क्रियाके वर्णन में उन्होंने जल, इक्षुरस, घृत, दुग्ध और दधिरूप पंचामृत से जिनेन्द्रके और इसलिये अपने भो - स्नानका विधान हो नहीं किया बल्कि " स्नानं कुरुध्वं बुधाः' (५०८) जेसे वाक्यां द्वारा उसकी साक्षात् प्रेरणा तक को ह । साथ हो, उसकी दृढ़ताकं लिये ऐसे अभिपेकका फल भी मरु पर्वत पर देवताओं द्वारा अभिषेक किया जाना आदि बतला दिया है आर एक नज़ोर भो प्रोत्साहनार्थ तथा इस क्रियाको मुख्यता प्रदान करनेके लिये दे डाली है, और वह यह कि देवता लोग भी पहले भगवान्का अभिषेक करके पोछे सम्पत्तिको अंगीकार करते हैं-दूसरे कामोंमें लगते हैं । इसी तरह पूजन क्रिया के वर्णनमें उन्होंने भगवच्चरणोंके आगे जल को तीन धाराएं छोड़ने, केसर, अगर- कपूर को घिस - कर जिन चरणों पर लेप करने और जिन चरणोंके आगे सुन्दर अक्षतों, कुन्द- कमलादिके पुष्पों तथा सर्व प्रकार के पक्वान्न व्यंजनोंको चढ़ाने, हज़ारों घृतपूरित दीपकोंका उद्योत करने, सुगंधित धूप जलाने और केला आम्रादि फलों को अर्पण करने रूप अष्टद्रव्य से पूजन का विधान ही नहीं किया किन्तु "एवं बुधोत्तमा जिनपतेः इज्यां कुरुध्वं च भो' (६२२) जैसे वाक्यों
* इससे यह कथन अगले भविष्यकथनकी प्रस्तावना या उत्थानिक की कोटिसे निकल जाता है और एक असम्बद्ध प्रलापके रूपमें ही रह जाता है 1