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इस बात को स्पष्ट बतला रहे हैं कि यह सारा वर्णन भगवान् महावीरके मुख से राजा श्रेणिकके प्रति कहलाया गया है। अनुवादक महाशयने व्यर्थही भोले पाठकोंको आँखों में धूल डालने का यह निंद्य प्रयत्न किया है। वास्तवमें अपने इस प्रयत्न द्वारा ग्रंथकार की स्पष्ट मूर्खतादि का पक्ष लेकर उन्होंने खुदको तत्सदृश सिद्ध किया है !
खेद है कि मुनि शान्तिसागरजी आचार्य बनकर और कलिकाल सर्वज्ञ कहलाकर भी ग्रंथकारके इतने मोटे असम्बद्ध प्रलापको समझ नहीं सके, न अपने चेले ब्रह्मचारी ( वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर) की उक्त कर्तृत ( लीपापोती) को हो परख सके हैं और यही बिना समझे गणधर चेलों के जाल में फंसकर ऐसे जाली प्रथके प्रशंसक बन बैठे हैं और अपने संघ द्वारा उसका प्रचार करते तथा होने देते हैं, जो भगवान् महावीरके पवित्र नामको कलङ्कित करने वाला है । अस्तु ।
इस असम्बद्ध प्रलापके भीतर जो असत्य प्रलाप भरा हुआ है और ऐतिहासिक तथ्योंके विरुद्ध कितनाही कथन पाया जाता हैं उस सबको यहा प्रकट करनेका अवसर नहीं है, अवकाश मिला तो उसका कुछ अंश किसी दूसरी जगह प्रकट किया जायगा -- कुछ संकेतमात्र नं० २ में दियाभी जा चुका है | यहां पर सिर्फ इतनाही जान लेना चाहिये कि ऐसा असंबद्ध प्रलाप भगवान् महावीर जैसे आप्त पुरुषोंका नहीं हो सकता। चूंकि प्रतिशा और उपसंहार वाक्यों आदिके द्वारा उसे साफ़ तौर पर भगवान् महावीरका प्रकट किया गया है । अतः इस परसे ग्रंथका जालोपन औरभी निःसन्देह हो जाता है और वह स्पष्टतया जाली तथा बनावटी सिद्ध होता है । साथी, यहभी स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रथकारके कथनानुसार किसी 'अनागतप्रकाश' नामके प्राचीन ग्रंथस्ते उधृत