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[ ४४ ] वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया था तो फिर आगे चलकर श्लोक नं० ३५२ से भगवान् राजा श्रेणिकको सम्बोधन करते हुए बोच मैं क्यों बोल पड़े ?--वहाँ उनके इस बोचमें कूद पड़नेको अथवा बिना घुलाये बोल उठने के कारणको अनुवादक महाशय ने भो कोई सूचना नहीं की!-क्या ग्रंथकारके सामनेभो उस. के सम्बोधन के लिये राजा श्रेणिक मौजूद थे ? यदि ऐसा कुछ नहीं तो फिर क्या अनुवादक महाशय अपने उक्त वाक्य-प्रयोग के द्वारा यह सुझाना चाहते हैं कि भविष्यवर्णनारूप जितना कथन है वह तो खास महावीरका कथन है- उन्हींके शब्दोंमें ज्यों का त्यों उनके मुखसे निकला हुआ है, उसमें तदनुसार कथनकी कोई बात नहीं-और शेष कथन प्रन्थकारका अपने तौरपर किया हुआ कथन है ? यदि ऐसा है तबभी असम्बद्ध प्रलापका दोष दूर नहीं होता, क्योंकि भविष्यवर्णनाके कथनों को क्रमशः मिलाकर और इसी तरह भूतवर्णनाक कथनोंको क्रमशः मिलाकर अलग अलग पढ़ने पर वे औरभी ज़्यादा असम्बद्ध मालूम होते है । उदाहरणके तौर पर यदि 'तद्विमाने समामा यास्यति' इत्यादि श्लोक नं० १९८ के बाद 'इत्यादि सकलान् प्रथान्' नामक भविष्यवर्णना वाले श्लोक नं० ३५२ को पढ़े तो वह कितना असम्बद्ध तथा बेढङ्गा मालूम देगा और उससे भगवान्को मूर्खता, असमोक्ष्यकारिता और उन्मत्त. प्रलापता कितनी अधिक बढ़ जायगी; क्योंकि बीचके सारे कथन-सम्बन्धको छोड़ देने परभी श्लोक नं. ३५२ में प्रयुक्त हुआ 'इत्यादि' शब्द अपने पहले कछ ग्रंथोंके नामोल्लेखको मांगता है, जिसका महावोरको भविष्यवर्णनामें अभाव है। अतः इस असम्बद्ध प्रलापके ऊपर किसी तरहभी पर्दा नहीं डाला जा सकता-प्रकरणके आदि अन्तके ऊपर उद्धत किये हुए दोनों प्रतिज्ञा और उपसंहार वाक्य (नं० १५७, ४९७) ही