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[ ४३ ] डाला !! इस तरह ग्रंथकारने अपनी मूर्खता, अपनी अशता, अपनी अनुदारता, अपनो साम्प्रदायिकता, अपनो कट्टरता और अपनो मिथ्या धारणाको भगवान् महावीरके ऊपर लादकर उन्हें मूर्ख, अज्ञानी, अनुदार, साम्प्रदायिक, कट्टर और असत्यभापी ठहरानेको अक्षम्य धृष्टता को है !!!
___अनुवादक महाशय ७० ज्ञानचन्द्रको भी प्रन्थकारका यह असम्बद्ध प्रलाप कुछ खटका ज़रूर है परन्तु उन्होंने प्रन्थकारके सुरमें सुर मिलाकर उसे छिपाने तथा उस पर पर्दा डालनेकी जघन्य चेष्टा की है। आपने श्लोक नं० १९८ का अर्थ देनेके बाद एक विचित्र वाक्य इस प्रकार लिख दिया है:
___ “आगे ग्रन्थकार उस कथनके अनुसार स्वयं वर्णन करते हैं।"
परन्तु ग्रन्थकारने ग्रन्थमें कहाँ ऐसी सूचना को है, इसे वे बतला नहीं सके और न यह सुझा सके हैं कि ग्रन्थकारको अपने ग्रन्थकी पूर्वप्रतिज्ञा (श्लोक नं० १५७) के विरुद्ध ऐसा करनेकी ज़रूरत क्यों पैदा हुई ?-वह भगवान्को बीचमें कहते कहते छोड़कर अपना राग क्यों अलापने लगा ?-और पूर्वकथनमें भी जो कहीं कहीं भूतकालोन वाक्य पाये जाते हैं उनका तब क्या बनेगा ? इससे यह सब अनुवादक महाशयकी निजी निःसार कल्पना है। उन्हे इस कल्पनाको करते हुए इतनोभी समझ नहीं पड़ी कि हमारे "उस कथन" शब्दोंका वाच्य भगवानका भविष्यवर्णनारूप कथन है या भूतवर्णनारूप, यदि भूतवर्णनारूप है तो असम्बद्ध प्रलाप ज्योंका त्यों स्थिर रहता है और यदि भविष्यवर्णनारूप है तो उसके अनुसार प्रन्थकारका कथनभी भविष्यवर्णनारूप होना चाहिये था, जो नहीं है और न यही ख़बर पड़ी कि श्लोक नं० १९८ के बादसे यदि ग्रंथकारने बिना किसी सूचनाके ही स्वयं अपने तौरपर