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कि अकालय जैन सिद्धान्तोंको पढ़ने के दोषसे ग्रीवा यह वक्रता आई है, अकालमें जैनसिद्धान्तोंको नहीं पढ़ना चाहिये। इस पर कुन्दकुन्दने अपनी निन्दा की और उस दोषकी शान्तिके लिये सीमंधर स्वामीका स्तवन किया, तब सरस्वतीने अवक्रता प्रदान की और वह 'वक्रमीव' नाम देकर अपने स्थान चली गई । इसीसे कुन्दकुन्दका तीसरा नाम 'वक्रग्रीव' हुआ। 'एलाचार्य नाम विदेह क्षेत्रसे पड़ा, और विमानमें पिच्छिकाके गिर जाने पर देवोंने गृद्धपिच्छिका दो थी इससे 'गृद्धपिन्छा. चार्य' नाम पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ। इस तरह वे मुनि पांच नामोंसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए ।
यह पिछला वाक्य इस प्रकार है :एवं पंचाभिधानेन स मुनिः सकलार्थवित् । श्रासीत् विख्याततां पूज्यः विपक्षविजयात्सुरैः ॥४५३॥
इसके बाद भगवान महावीर कुन्दकुन्दकी भक्तिमें कुछ ऐसे डूबे कि वे इस बातको ही भूल गये कि हम तीर्थकर हैंसर्वज्ञ हैं, कुन्दकुन्द हमारे पीछे शताब्दियों बाद कलिकालमें एक छमस्थशानी साधु होने वाला है; और इसलिये उन्होंने, मानो अपनेको कलिकालीन अनुभव करते हुए, एक पूर्व महर्षि के तौरपर कुन्दकुन्दको नमस्कार किया, उनके चरणोंकी वन्दना की और उनका स्तोत्र तक रच डाला, जिसमें श्वेताम्बरोंको गाली दी गई-उन्हें 'खलाशय' तथा 'क्रूर' बतलाया गयाकुन्दकुन्द मुनीन्द्रने ही इस कलियुगमें शास्त्रादिकी रचना की है ऐसा कहा गया और कहा गया कि उनके समान इस कालमें न कोई हुआ और न होगा। साथही, उनकी माताको भी धन्यवाद दिया गया जिसकी कूखसे ऐसा पुत्र पैदा हुआ। इतने परसे भी तृप्त न होते हुए पुनः भगवान् 'चित्तरोधार्थ