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[३९] वाद हुआ-वह पिच्छि तो स्वामीके पास आगई परन्तु के वस्त्र वहीं रहे।
'पुनः कुन्दकुन्द स्वामीने शुक्लाचार्यसे कहा कि यदि तुम्हाग धर्म आदि धर्म है तो इस पाषाणनिर्मित सरस्वतीको मूर्तिसे कहलाओ, जिसको यह मूर्ति आदिमत कह देगी उसीको पहले यात्रा होगी; शुक्लाचार्यने इसे स्वीकार किया और अपने मंत्रबलसे मूर्तिको बोलने के लिये प्रेरित किया परन्तु मर्तिने बोलकर नहीं दिया, इससे शुक्लाचार्यका मुंह काला पड़ गया। तब कुन्दकन्दने पिच्छि हाथ में लेकर और सीमंधर स्वामीको नमस्कार कर उस सरस्वतोसे सत्यवाणी बोलनेको कहा, उसे सुनतेहो वह पाषाणकी मूर्ति बोलने लगी, उसने दैगम्बर मतको तीन बार 'आदिमत' बतलाया, उसकी बहुत कुछ प्रशंसाकी ओर फिर शुक्लाचार्यको अपना संकल्प छोड़ने की प्रेरणा करते हुए वह मौनस्थ हो गई। सरस्वतीके प्रभावसे श्वेताम्बरयतियोंके सर्व देवता कुत्तोंकी तरह भाग गये!* और दिगम्बर पक्षकी जय हुई।'
'तत्पश्चात् कुन्दकुन्दने चतुर्विध संघके साथ श्रीनेमिजिनेन्द्रका सानन्द दर्शन किया और वहीं पर 'सरस्वती' नाम का गच्छ तथा 'बलात्कार' नामका गण स्थापित किया, अपने नामका वंश कायम किया और अपने शिष्योंकी 'नन्दि' आदि आम्नाय कायम को और कहा कि सर्व संघोंमें मल संघ मुख्य है, अतः आजसे तुम इसको भजो। सिद्धभूमिकी यात्रा करके कुन्दकुन्द मुनि अपने स्थानको वापिस आ गये और तप करने लगे । एक दिन ध्यानके समय उनकी गर्दन टेढ़ी हो गई, वे उसके कारणका विचार करने लगे तो सरस्वतीने आकर कहा
* इस वाक्यके द्वारा भगवान् महावीरकी भाषासमितिकासंयत भाषाका-अच्छा पदर्शन किया गया है !