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[२५] इस प्रकार यह जयधवलादि प्रन्थों का ऐतिहासिक परिचय है और इससे स्पष्ट है कि प्रन्थकार ने इनके नाम पर कितना जाल रचा है । मालूम होता है उसने कभी इन प्रन्थों को देखा तक भो नहीं, योंही इधर उधर से इनके महत्वादिकी कुछ कथा सुन कर और यह जान कर कि वे दूर से ही पूजाअर्चा के पात्र बने हुए मूडबिद्री की एक काल-कोठरी में बन्द हैं, किसी को प्राप्य नहीं है, न सर्वसाधारण की उन तक गति है
और इसलिये उनके पवित्र नामाश्रय पर जो भी प्रपञ्च रचा जायगा वह सहज ही में किसी को मालूम नहीं हो सकेगा,उस ने यह सब कुछ खेल खेला है और इस तरह पर अपनी मनमानी बातोको प्राचीन ग्रन्थों तथा प्राचीन आचार्यों के नाम पर जनता के गले उतारने का जघन्य प्रयत्न किया है । प्रन्यकार पं० नेमिचन्द्र का यह प्रयत्न उस प्रपञ्च से भी एक तरह पर कुछ बढ़ा चढ़ा है जो जिनसेन-त्रिवर्णाचार के कर्ता ने 'यथोक्त जयधवले', 'तत्राह महाधवले', 'अथ धवलेऽप्युक्त। जैसे वाक्यों के साथ हिन्दू ऋषियों के स्रो-संभोगादि संबंधी कुछ जैनवाह्य वाक्यों को हिन्दू-ग्रन्थों से उद्धृत कर उन्हें जय. धवलादि ग्रंथों के नाम से जैन समाज में प्रचलित करने का किया था ® । उसका वह प्रपञ्च तो इन सिद्धान्त प्रन्थों के सम्बन्ध में कुछ थोड़े से वाक्यों तक ही सीमित था, परन्तु इस ग्रंथकार ने तो प्रायः समूचे ग्रंथ को महाधवल की गर्दन पर लाद कर चलाने का प्रभारी प्रपञ्च रचा है ! इस जालसाजी तथा धूर्तता का A 'ठिकाना है !! मालूम होता है, ग्रंथकार महाशय को अपनी इस प्रपंची रचना पर, उसे अमोध समझते हुए बहुत कुछ गर्ष दुआ है और इसलिये उसने प्रन्थावतार के अन्त में यही क लिख दिया है कि "जो कोई
* देखो "ग्रंथ परीक्षा प्रवराग ८३ से ४५ तक ।