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[ २६ ] मनुष्य कुमार्ग पोषक (सुधारक आदि ?) होंगे वे इस प्रन्थ के सुनने मात्र से मंत्र-कीलित नागों की तरह मुकवत् स्थिर हो जायंगे-उन्हें इसके विरुद्ध बोल तक नहीं आएगा" -
अस्य श्रवणमात्रेण कुपथपोषका नराः । मूकवत् येऽत्र स्थास्यति यथा नागाश्च कीलिताः ॥
परन्तु बेचारे पण्डितजी को यह खबर नहीं थी कि जयधवलादिक ग्रंथ सदा के लिये कालकोठरी में बन्द नहीं रहेंगे, काललब्धिको पाकर एक न एक दिन उनके बंधन भी खुलेंगे, वे कनड़ी लिपिसे देवनागरी लिपिमें भी लिखे जायंगे और विद्वानों के परिचय में भी आएंगे। और न यही खबर थी कि उसके इस समग्र मायाजालका भंडाफोड़ करनेवाले नथा इस ग्रंथके विरुद्ध साधिकार बोलने वाले परीक्षक भी पैदा होंगे और उन पर कोई माया मंत्र न चल सकेगा। यदि खबर होती तो वह ऐसी गर्वोक्ति का साहस कर व्यर्थ हो हास्यास्पद बनने की चेष्टा न करता।
यहां पर मुझे इतना और भी कह देना चाहिये कि आज भी जो लोग कषाय तथा अज्ञानवश इन प्रन्यों को छिपा कर रखते हैं और किसी जिज्ञासु विद्वान् को भी पढ़ने के लिये नहीं देते वे इन प्रन्थों के नाम पर ऐसे प्रपंचों तथा जाली प्रन्थों के रचे जाने में सहायक होते हैं । अतः मूडबिद्री और सहारनपुर जैसे स्थानों के भाइयों को इस विषय में अपने कर्तव्य को खास तौर पर समझ लेना चाहिये, और साथ ही यह जान लेना चाहिये कि उनका ऐसा व्यवहार जिनवाणी माता के प्रति घोर अत्याचार है तथा दूसरों की ज्ञान सम्प्राप्ति में बाधक होना अपने अशुभ कर्मों के प्रास्त्रवबन्ध का कारण है।
२. भगवान महावीर के सिर विरुद्ध कथन । प्रन्थ में मंगलाचरणादि के अनन्तर भगवान्