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बतलाया गया है | वह नहीं बन सकता; क्योंकि वीर निर्वाण संवत् ४७० से पहले न तो धरसेन ही हुए हैं और नं उन मूल सिद्धांत ग्रंथों की रचना हो हुई थी जिन पर धवलादि भाष्य रचे गये हैं । इन सब का प्रादुर्भाव धवलादि प्रन्थों के अनुसार उस समय के बाद हुआ है जबकि एक भी अङ्गका कोई पूरा पाठी नहीं रहा था और यह समय पूर्वोल्लिखित श्रुतावतार तथा श्रुतस्कन्ध के हो नहीं, किन्तु त्रैलोक्यप्रशति, और जिनसेन कृत हरिवंश पुराणादि जैसे प्राचीन ग्रंथों के भो अनुसार वीर निर्वाण संवत् ६८३ है । और इसलिये दोनों कथन परस्पर में विरुद्ध पड़ते हैं ।
(ख) दूसरे, प्रभावतार में प्रथकारका यह सूचित करना कि धरसेन से पहले संपूर्ण अंग तथा पूर्व नष्ट हो चुके थे ("अंगाच पूर्वा ह्यखिला गताव", पृ० ३६०), और फिर धरसेन को वीर निर्वाण सं० ४७० से पहले का विद्वान् बतलाना भी विरुद्ध है, जबकि अङ्गशान नष्ट नहीं हुआ था ।
(ग) तीसरे, कुन्दकुन्द के समय में श्वेताम्बर मत का जो बहुत कुछ प्रचार बतलाया गया है और यह कहा गया है कि गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बराचार्य के साथ कुन्दकुन्द का महान् वाद हुआ है, वह सब कथन भी विरुद्ध ठरहता है; क्यों कि इसी ग्रंथ में ढूंढक मत को उत्पत्ति का वर्णन करते हुए, श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति संवत् १३६ में बतलाई है ( पृष्ठ १७९), और यह संवत् १३६ विक्रम संवत् जान पड़ता है, जिस
+ "धरसेन यतीन्द्र ेण रचिता धवलादयः । विद्यन्ते सेsyनातन जैनाभिचपुरे वरे ॥ ( पृ० ६८ )
1 रिपुरभीन्दु संयुक्तसमेऽभूत्श्वेतवाससाम् । द्वापरेषु प्रमनानां यतोहि काल दोषतः ॥