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रात्रि होनेको वजहसे (!)- कुन्दकुन्द सात दिनतक निराहार रहे, फिर सीमंधर स्वामीको बार बार स्तुतिप्रणाम कर, गणधरादिको नमन कर और उनके दिये हुए ग्रंथोंको लेकर तथा विमान में रखकर वे पूर्वोक दोनों देवताओंके साथ आकाश मार्गसे रवाना हुए, देवता उन्हें उसी स्थानपर छोड़कर और उनको आज्ञा लेकर वापिस चले गये । फिर कुन्दकुन्दने सारे मिथ्यात्वको शान्त किया; उनके उपदेशसे भव्य जीवोंने दान, पूजा, यात्रा, अभिषेक, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मंदिरजीर्णोद्धार आदि अनेक कार्य किये; उस वक्त जैनधर्मका बड़ा उद्योत हुआ, उन्होंने कलिकालमें धर्मका उद्धार किया, वे मुनि जयवंत हों । उनके अतिशयको देखकर कितनोंहोने संयम ग्रहण किया । 'नन्दी' आदि उनके शिष्य हुए, जिन्हें चारों दिशाओं में भव्योंके संबोधनार्थ भेजा गया । उस वक्त जिनधर्म पृथिवी पर प्रकट हुआ । कुन्दकुन्द ने पुनः सिद्धान्तोंको प्रकट किया, कितनेही ग्रन्थ रचे- जिनमें समयसारादि कुछ प्रसिद्ध ग्रंथोंके अतिरिक्त 'श्रावकाचार*', 'जिनेन्द्रस्नानपाठ' तथा 'प्रभुपूजन'
* 'कुन्दकुन्दश्रावकाचार' की परीक्षा को जाचुकी है और वह महाजाली सिद्ध हुआ है (देखो, प्रन्थपरीक्षा, प्रथम भाग ) । मालूम होता है इसी तरह पर और भी कितनेही ग्रंथ कुन्दकुन्दके नामसे जाली बनाये गये हैं, जिनमें 'जिनेन्द्रस्नान पाठ' और 'प्रभुपूजन' जैसे ग्रंथभी उस कोटिके जान पड़ते हैं । अभिषेक और पूजन जैसे विषय उस वक्त ख़ास विवादापन थे और अधिकांशमें वेही तेरहपंथ और बोस पंथके झगड़े की जड़ बने हुए थे । भट्टारकों तथा भट्टारकानुगामियोंने इन विषयों के सम्बन्धमें अपनी मान्यताओंके पीछे युक्तिबल न देखकर प्राचीन आचार्योंके नामपर अनेक जाली ग्रंथोंकी रचना की है, और कितीही बातें दूसरे ग्रंथोंमें प्रक्षिप्त भी की हैं ।