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[ २८ ] अवतार समन्तभद्र के ही नहीं, किन्तु जिनसेन के भो बाद (पश्चात् ) बतलाना ऐतिहासिक तथ्य के विरुद्ध है। जिनसेन कुन्दकुन्द से कई शताब्दियों बाद विक्रम की ९ वीं शताब्दी में हुए हैं-उन्हों ने 'जयधवल' भाष्य को शक सं० ७५९ (वि० सं०८९४ ) में बना कर समाप्त किया है, जबकि कुन्दकुन्द शक संवत् ३८८ स भी बहुत पहिले हो चुके हैं। क्योंकि इस संवत् में लिखे हुए मर्करा ताम्रप्लेट में उनका नामोल्लेख ही नहीं किन्तु उनके वंश में होने वाले गुणचन्द्रादि दूसरे कई आचार्यों तक के नाम भी दिये हुए है* | और समन्तभद्र का कुन्दकुन्द से पीछ होना तो श्रवणबेलगोल के कई शिलालेखों (नं. ४०/६४ आदि ) से प्रकट है।
याप श्लोक नं० १५६ के शुरू में प्रयुक्त हुआ 'पश्चात् शब्द अपने प्रयोगमाहात्म्य से साफ़ तौर पर पूर्वोल्लिखित भद्रबाहु, जिनसेन ओर समन्तभद्र के पश्चात् कुन्दकुन्द के होने को सूचित करता है, परन्तु अनुवादक महाशय ने उसके पहले "हमारे" अर्थवाचक शब्द को यों ही ऊपर से कल्पना की है
और 'जाया' शब्द को चार की संख्या का वाचक बतलाकर (1) लिख दिया है कि-"हमारे (वीर निर्वाण संवत् से) चार सौ सत्तर वर्ष के बाद देवों से पूजित कुन्दकुन्द नाम के यतीश्वर होंगे"-अर्थात् वि० संवत् १ में कुन्दकुन्द का होना बतला दिया है ! इस अर्थ को यदि किसी तरह पर ठोक मान लिया जाय तो उस से और कई आपत्तियां खड़ी होती हैं और विरोध आते हैं
(क) एक तो. आगे कुन्दकुन्द का वर्णन करते हुए जो उनके समय में धरसेनाचार्य कत धवलादि ग्रंथों का अस्तित्व
* देखो, 'एपिग्राफिका कर्णाटिका' जिल्द पहली अथवा 'स्वामी समन्तभद्' इतिहास पृ. १६६ ।