________________
[३०] का समर्थन रत्ननन्दि के भद्रबाहु चरित्र से ही नहीं किंतु १०वीं शताब्दी के बने हुए दर्शनसार ग्रंथ की निम्न गाथा से भी होता है:
एकसये छत्तीसे विक्कमरायस्स मरण पत्तस्प ।
सोरटे वलहीए उप्पण्णो सेवडो सघो ॥
यदि यह कहा जाय कि यह सं० १३६ वीर निर्वाण संवत् है तब भी विरोध दूर होने में नहीं आता; क्योंकि एक तो दूसरे प्राचीन प्रन्यों के साथ विरोध बना ही रहता है, दूसरे इसी ग्रंथ में अन्यत्र पृष्ठ ६३ पर श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति भद्रबाहु के समय के बाद बतलाई है । ये भद्रबाहु यदि श्रुतकेवली हों तो उनका समय दिगम्बर मतानुसार वीर निर्वाण से १६२ वर्ष तक का है। इनके बाद श्वेताम्बर मत को उत्पत्ति होने से वह वीर निर्वाण संवत् १३६ में नहीं बन सकती और इस संवत् में उत्पत्ति मानने से वह भद्रबाहु श्रुतकेवली के बाद नहीं बन सकती। यदि ये भद्रबाहु दूसरे भद्रबाहु हो तो फिर वे उक्त भविष्यवर्णन के भी अनुसार वीर निर्वाण से ५०० वर्ष के बाद हुए हैं, तब वीर निर्वाण सं० १३६ में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति
और भी ज्यादा विरुद्ध हो जाती है और 'पश्चात्' शब्द का अर्थ वही ५०० वर्ष के बाद होने वाले भद्रबाहु, समन्तभद्र आदि आचार्यों के भो बाद का रह जाता है जिस पर शुरू में हो आपत्ति की जा चुकी है।
मृते विक्रमभूपाले षट् त्रिंशदधिकशते । __ गतेऽब्दानामभूल्लोके मतं श्वेताम्बराभिधं ॥ ४-५५ * "भद्रदोः समये पश्चादभूवै श्वेतवासस । ___मत: कापट्यमन्ना द्वादरार्पित चेतसाम् ॥ अर्थ-भद्रबाहु स्वामीके पीछे श्वेतांवर मत प्रचलित हुआ।"