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[ २३ ] चार अध्यायों में विस्तारके साथ वर्णन किया है । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि कोई विवरण ( भाष्य ) ग्रन्थ है-इसमें पंचिका रूपसे मूल 'सत्कर्म' विषयका विवरण दिया है, जैसाकि इस प्रन्थके निम्न प्रतिज्ञावाक्यसे प्रकट है:
वुच्छामि सत्तकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ॥
और इसलिये महाधवलको महाबन्धके संक्षेपभूत उस 'सत्कर्म'* प्रन्थका भाष्य समझना चाहिये जो कि 'श्रुतावतार'
____ * पं० लोकनाथ जी शास्त्रीने अपने ग्रन्थ-परिचयमे भाष्यके उक्त प्रतिज्ञावाक्यमे प्रयुक्त हुए 'सत्तकम्मे' पदके 'सत्त' शब्दका अर्थ 'सप्त' दिया है, जो ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके "सत्कर्मनामधेय षष्ठ स्खण्डं विधाय संक्षिप्य" इस वाक्यसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि छठे खण्डके संक्षेपभूत ग्रंथका नाम 'सत्कर्म' है और वही 'सत्तकम्मे' पदके द्वारा यहाँ विवक्षित है। प्राकृत भाषामे 'सत्त' शब्द केवल 'सप्त' के अर्थमे ही प्रयुक्त नहीं होता किन्तु सत्य (सत् ), शक्त, शत, सक्त, सत्र, गत और सत्व अर्थों मे भी प्रयुक्त होता है ( देखो, प्राकृत-शब्द-महार्णव पृष्ठ १०७६ )। और इसलिये श्रुतावतारके उक्त वाक्यको ध्यान रखते हुए यहां पर उसका सत्य अर्थात् सत् अर्थ ही ठीक जान पड़ता है और उससे मूल ग्रंथका नाम बिलकुल स्पष्ट होजाता है । भाष्य लिखनेकी प्रतिज्ञाके अवसरपर उस ग्रंथका नाम दिया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, जिसपर भाष्य लिखा जाता है।
___यहां पर यह प्रकट कर देना भी उचित मालूम होता है कि बादको उक्त शास्त्रीजीने भी इसे मान लिया है। वे १७ जूलाई सन् १९३२ के पत्रमें, अपनी भूल स्वीकार करते हुए, लिखते हैं"मंगलाचरणमे प्रयुक्त 'सत्तकम्मे' इस पदका 'सप्तविधकर्म' ऐसा, अर्थ ठीक नहीं है, जो आपने श्रुतावतार के अनुसार 'सत्कर्म किया सो ही ठीक मालूम पड़ता है।