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बातोंका समर्थन होता है और उसमें यह भी लिखा है कि सबसे पहले भूतबलि आचार्यने 'पट्खण्डागम' को पुस्तकारूढ़ ( लिपिबद्ध ) कराकर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको उसकी पूजा-प्रतिष्ठा की थी- धरसेनाचार्य का इस पूजा-प्रतिष्टादिसे कोई सम्बन्ध नहीं है। रही 'महाधवल' ग्रंथको बात, वह भी धरसेनाचार्यको कोई कृति नहीं है, किन्तु षट्खण्डागम के 'महाबन्ध' नामक छठे खण्डका या अधिक स्पष्ट रूपमें कहा जाय तो महाबन्ध के संक्षेपभूत 'सत्कर्म' नामक ग्रन्थ का कोई भाष्य है, जो 'महाधवल' नाम से प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है । उक्त श्रुतावतार में इस नामसे उसका कोई उल्लेख नहीं है और मूडबिद्रीके पं० लोकनाथजी शास्त्रोने हालमें उसका जो परिचय ३१ दिसम्बर सन् १९३१ के जैनमित्र अङ्क नं० ७ में प्रकाशित कराया है उससे भी इस नामकी कोई स्पष्ट उपलब्धि नहीं होती । । हाँ, ब्रह्म हेमचन्द्र के 'श्रुतस्कंध' से इस ४० हजारको संख्या वाले ग्रंथ का नाम 'महाबन्ध' जरूर जान पड़ता हैसत्तरिसहस्सधवलो जयधवलो सट्ठिसहसबोधव्वो । महबंधो चालीसह सिद्धततयं श्रहं वंदे ॥ ८८ ॥
और शास्त्री जीके उक्त परिचयसे भी यह ग्रंथ साफ़ तौर पर बन्ध विषयक मालूम होता है; क्योंकि इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ऐसे चार प्रकारके बन्धोंका ही
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+ इस विषय में विशेषरूपसे दर्यागत करने पर और यह पूछने पर कि ग्रन्थ साहित्य के किस अंशपरमे उन्हें इस नामकी उपलब्धि हुई है, शास्त्रीजी अपने १७ जुलाई सन् १९३२ के पत्रमें लिखते हैं“उक्त सिद्धांत ग्रन्थके किसी अध्यायके अन्तमें 'महाधवल' नाम नहीं लिखा गया किन्तु केवल ग्रन्थारंभके प्रथम पृष्ठ में 'महाधवल' ऐसा नाम है । अतएव (उस ग्रंथके इस नाम सम्बन्धी) विषयमें मुझे भी संदेह है"।