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१ ग्रन्थावतारकी विचित्र कल्पना !
थके अन्तर्मे प्रन्धावतारको कथा देते हुए लिखा है कि- गिरनारपर्वतको गुहामें धरसेन नाम के एक योगीन्द्र रहते थे। उन्होंने यह सोचकर कि संपूर्ण अंगों तथा पूर्वोका ज्ञान लोप हो चुका है और बिना शास्त्र के लोग धर्म के मार्गको नहीं जान सकेंगे, जयधवल, महाघवल और विजयधवल नामके तीन शास्त्रोको रचना को, जिनको श्लोक संख्या क्रमशः ७० हज़ार, ४० हज़ार और ६० हजार हुई। रचनाके बाद उन्हें पत्रों (ताड़पत्रों) पर लिखा गया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन चतुर्विधसंघ के साथ उनको पूजा की गई । इसके बाद धरसेनजी का स्वर्गवास हो गया और उनके शिष्य भूतबलि आदिक उन तीनों ग्रंथोंके पाठो हुए । उनके भी स्वर्गवास पर कालक्रमसे नेमिचन्द्र मुनीन्द्र (सिद्धान्त चक्रवर्ती ) उन तीनो प्रन्थोके पारगामी हुए और उन्होंने महाधवल ग्रंथके आधार पर तीन प्रन्थों की रचना की, जिनके नाम हैं ( १ ) अनागतप्रकाश (२) तत्वप्रकाश (३) धर्मप्रकाश । अनागतप्रकाशको 'सर्वक्रियादिकथक' तथा 'मतान्तरविघातक' लिखा है और इसी
थके अनुसार 'सूर्यप्रकाश' नामका यह ग्रंथ रचा गया है, ऐसी प्रथकारने सूचना को है । और इस तरह पर महाधवल ग्रंथ तथा धरसेनाचार्य को इस ग्रंथका मूलाधार बतलाकर इसे महा प्रामाणिक प्रसिद्ध करने की चेष्टा की गई है।
परन्तु यह सब कोरी कल्पना और जाल है-- वास्त विकता से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । क्योंकि प्रथम तो यह बात किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है कि श्रीधरसेनाचार्यने जयधवलादि नामके तीन ग्रंथोंकी रचना की, उन्हें पत्रों पर