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लिखाया और ज्येष्ठ शुक्ल पंचमीको उनकी प्रतिष्ठा कीउन्होंने खुद वस्तुतः ऐसा कोई ग्रंथ ही नहीं बनाया। दूसरे, जयधवलादि ये मूल ग्रन्थोंके नाम नहीं. किन्तु टीकाप्रन्थोंके नाम हैं। टीकाओका ही इतने लोक परिमाण विस्तार है और वे मूल ग्रंथोंसे बहुत कुछ बादकी -- शताब्दियों पोछेकी कृतियाँ है । जिसे यहाँ 'जयधवल' नाम दिया गया है वह वस्तुतः भूतबाल - पुष्पदन्ताचार्य्य-द्वारा महाकर्मप्रकृति प्राभृतसे उद्धृत 'षट्खण्डागम' ग्रंथ की वीरसेनाचार्यकृत 'धवला' नामकी टोका अथवा 'धवल' नामका भाष्य है-जिससे युक्त सिद्धान्त ग्रंथको 'धवल सिद्धान्त' कहते हैं-और उसकी रचना शक सम्वत् ७३८ ( वि० सम्वत् ८७३ ) में हुई है । ग्रन्थ मे अन्यत्र धरसेनयतीन्द्रेण रचिता धवलादयः " इस वाक्यके द्वारा प्रथमोल्लेखित प्रन्थका नाम 'धवल' दिया भी है। इसी तरह 'विजयधवल' जिसका नाम दिया गया है वह गुणधर आचार्य विरचित 'कषायप्राभृत' ग्रन्थको 'जयधवला' नाम की टीका अथवा 'जयधवल' नाम का भाग्य है, जिसके २० हजार श्लोक जितने आद्य अंशको वीरसेनने, और शेषको उनके शिष्य जिनसेनने शक सं० ७५९ (सं० ८९४ ) में रचा है । और ये सब बातें इन ग्रन्थों परसे ही जानी जाती हैं । ये दोनों प्रन्थ मूडबिद्री* को कालकोठरीसे निकल कर उत्तर भारत में भी आगये हैं और इसलिये इनके विषयमें अब कोई ग़लतफ़हमी नहीं फैलाई जा सकती। इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' से भी इन
* 'सूर्यप्रकाश' में इन ग्रंथोंके अस्तित्व स्थान इस नगरको 'जैनपुर' नामसे उल्लेखित किया है और अनुवादकने उसका अर्थ 'मूडबिद्री' ही दिया है ।