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[ १८ ] भाईने उसके भेजने या भिजवाने की कपा नहीं की! सत्यकी जाँच, खोज, परीक्षा और निर्णय जैसे कार्यों में समाजके सहयोगकी यह हालत निःसन्देह शोचनीय है ! हाँ, एक मित्रके द्वारा मुझे इतना पता ज़रूर चला है कि जिस हस्तलिखित प्रति परसे यह प्रन्थ अनुवादित और सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है वह झालरापाटनके सरस्वती भवनकी प्रति है, और इसलिये मैंने उसकी प्राप्तिके वास्ते संठ विनोदीराम बालचन्द जीकी फ़र्मके मालिक सेठ नेमिचन्दजी बी० संठीको लिखा, जिसके उत्तरमें उन्होंने अपने ३० दिसम्बर सन् १९३१ के पत्र-द्वारा यह सूचित किया है कि
“'सूर्यप्रकाश' को हस्तलिखित प्रति ७० ज्ञानसागर जी ले गये थे, तबसे वह यहां नहीं आई,"...."जिसके लिये लिखा पढ़ी चल रही है । सो हस्तलिखित प्रति यहाँ पर है नहीं; अगर होती तो आपको अवश्य भिजवा दी जाती"।
- सूर्यप्रकाशको छपकर प्रकाशित हुए कई वर्ष हो चुके हैं, काम हो जाने के बाद इतने अर्से तक भी ज्ञानसागर जी जैसे क्षुल्लक व्यक्तियोंका उस प्रन्थप्रतिको वापिस न करना और अपने पास रोके रखना ज़रूर दालमें कुछ काला होनेके सन्देहको पुष्ट करता है। संभव है कि मूलमें भी उनके द्वारा कुछ गोलमाल किया गया हो। अस्तु: पुरानी हस्तलिखित प्रतिके अभावमें मुद्रित प्रति परसे ही ग्रन्थके विशेष आलोचनामय परीक्षा कार्यको प्रारम्भ किया जाता है।
ग्रन्थ-नाम गन्थका नाम 'सूर्यप्रकाश' सामने आते ही और उसके
पूर्वमें धर्म, कर्म, जैन, मिथ्यान्धकार या महावीर जैसा कोई विशेषणपद न देखकर आम तौर पर यह खयाल