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[ १७ ] इन क्षुल्लकादि वेषधारी पंडितोंके हाथकी कैसी कठपुतली बने हुए हैं ! इसीसे वह ठगाई जाती है, धोखा खा रही है और अपनी द्रव्यादि शक्तियोंका कितना ही दुरुपयोग कर रही है, जिसका एक ताज़ा उदाहरण सेठ गंभोरमलजी पाँख्याका पश्चाताप पूर्वक यह प्रकट करना है कि उन्होंने चर्चासागरके प्रकाशनार्थ द्रव्यकी सहायता देने में धोखा खाया है ! और यह सब जैन समाजके दुर्भाग्यकी बात है। ___अतः जिन लोगोंके हृदयमें धर्मकी कुछ चोट है और समाजका कुछ दर्द है उन्हें समय रहते शोघ्र सावधान हो जाना चाहिये और जनता को सचेत करते हुए इस नन्न भट्टा. रकीय पर्दे की ओटमें अनर्थों को बढ़ने देना नहीं चाहिये। साथ ही अपने धर्म, अपने साहित्य और अपने पूर्व महर्षियोंकी (प्राचीन आचार्योको) कोर्तिको रक्षाका और उसे विकृत तथा मलिन न होने देनेका पूरा ध्यान रखना चाहिये। यही इस समयका उनका ख़ास कर्तव्य है । और नहीं तो फिर यह देख कर अधिकाधिक पछताना ही पड़ेगा कि
"पंडितैभ्रष्टचारित्रवठरेश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥"
'भ्रष्टचारित्र पंडितों और घठर साधुओं ( मूर्ख तथा धूर्त मुनियों) ने, जिनेन्द्रचन्द्र के निर्मल शासनको-पवित्र जैनधर्मको-मलिन कर दिया है।"
यही सब सोच-विचार कर समाज-हितकी दृष्टिसे मैं इस ग्रंथकी विशेष जाँच, आलोचना एवं परोक्षामें प्रवृत्त हुआ हूँ। इस कार्यके लिये मुझे ग्रंथकी पुरानी हस्तलिखित प्रतिकी भी आवश्यकता थी, जिसके लिये सूचना निकाली गई और कुछ पत्रव्यवहार भी किया गया; परन्तु खेद है कि किसी भी