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अर्थात्- जो लोग अपवित्र वस्त्र पहने हुए हों, आधा वस्त्र पहने हों, मैले कुवैले वस्त्र पहने हुए हों, लंगोटी लगाये हुए हों, भगवे वस्त्र पहने हुए हों, महज़ धोती पहने हुए हों, भीतर कच्छ लगाये हुए हों, बाहर कच्छ लगाये हुए हों, कच्छ बिलकुल न लगाये हुए हों ओर वस्त्र से बिलकुल रहित हो, उन सबको नग्न ठहराया है !
जब महात्मा गाँधीजी ने मुनियों को लंगोटी लगाने की बात कही थी तब इन त्रिवर्णाचारी पंडितों ने भो उसका विरोध किया था और उसे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। मैं सोचता था कि दूसरे लोग नग्नता में बाधा आती हुई देख कर उसका विरोध करे सो तो ठोक, किन्तु ये त्रिवर्णाचारी पंडित किस आधार पर विरोध करने के लिये उद्यत हुए हैं, जबकि इनके मतानुसार - इनके मान्य आगम त्रिवर्णाचार के अनुसारलंगोटी तो लंगोटी पूरे वस्त्र पहनने पर भी नग्नता भंग नहीं होती । परन्तु उसी समय मैंने समझ लिया था कि यह सब इन लोगों की गहरी चाले हैं, ये योही अपने विचारों की बलि देकर इन मुनियों के पीछे नहीं लगे हैं, इनके हाथों नग्न भट्टारकीय मार्ग को प्रतिष्ठित कराके उसके द्वारा अपना गहरा उल्लू सीधा करना चाहते हैं, और वही हो रहा है । जनता प्रायः मूर्ख है, मुनियों के बाह्य रूप को देखकर उसपर लट्टू है और मुनि-मोह में पागल बनी हुई है। उसे सूझ नहीं पड़ता कि इन मुनियों में कितना ज्ञान है, कितना वैराग्य है- कितना अकषायभाव है और इनकी परिणति तथा प्रवृति कहाँ तक जैनागम के अनुकूल है ! और न उसे यही ख़बर है कि ये मुनि सामाजिक राग-द्वेषों में कितना भाग ले रहे है, और आचार्य होकर भी शान्ति सागर जी