________________
[१४] हो प्राप्त हुआ है । बम्बई से सुहृद्वर पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने इसे रजिस्ट्री करा कर मेरे पास भेज दिया है और साथ ही यह अनुरोध किया है कि मैं इसकी परीक्षा-पूर्वक कुछ विशेष आलोचना करदूँ, जिससे इसके द्वारा जो अनर्थ फैलाया जा रहा है वह रोका जा सके । आते हो दो तोन दिन के भीतर मैंने इस ४१२ पृष्ठक सानुवाद मोटे प्रन्थपर सरसरी तौर पर एक नज़र डाली और उस परसे यह ग्रन्थ मुझे बहुत कुछ निःसार, अनुदार, प्रपञ्ची तथा असंबद्धप्रलापी जान पड़ा। साथही, यह भीजानपड़ा कि अनुवादक महाशयने इच्छानुकूल उलटा-सीधा तथा प्रपञ्चमय अर्थ कर ग्रन्थके इन गुणोंको और भी बढ़ा दिया है और उसके विषयमें 'एकतो करेला दुसरे नीमचढ़ा' की कहावत को चरितार्थ किया है ! और इसलिये मैंने इस ग्रंथकी विशेष आलोचनाका निश्चय किया।
__ यह 'सूर्यप्रकाश' पं० नेमिचन्द्रका बनाया हुआ है। प्रन्थके अन्तमें उनकी एक प्रशस्ति भी लगी हुई है, जिससे मालूम होता है कि चम्पावतीपुरमें स्वर्णकोर्ति नामके कोई सूरि (भट्टारक) थे, उनके शिष्य राजमल, राजमल्ल के शिष्य ततेचन्द्र, फतेचन्द्र के शिष्य वृन्दावन, वृन्दावनके शिष्य सोता. राम और सीतारामके शिष्य शिवजीराम हुए, जो पहले कुछ वर्ष चम्पावतीपुरमें रहे, फिर तक्षपुरमें रहने लगे और अन्तको यहाँसे भी चलकर द्रोणो (दूनी) पुरमें आ बसे । उन्हीं पं० शिवजीरामके ग्रन्थकार महाशय शिष्य थे।