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[ १३ ] बड़प्पन की प्राप्ति है। शायद इसीसे उक्त ब्र० ज्ञानचन्द्रजीने, जो प्रन्थके अनुवादक भी हैं, सम्पादकके तौर पर ग्रंथ पर अपना नाम देना गौरव की वस्तु समझा है ! जबकि 'चर्चासागर' का संपादन करने पर भी उन्हें उसपर अपना नाम किसी रूप में भी देने में संकोच हुआ है !!
(६) छठे, 'चर्चासागर' की कोई कीमत नहीं है, वह यों हो मुफ्त बॅटता फिरता है । जबकि 'सूर्यप्रकाश' पर सेठोद्वारा द्रव्यकी सहायता प्राप्त होने पर भी २)रु० कीमत दर्ज है और इसलिये दो रुपये उसकी भेंट करने पड़ते हैं, जो संभवतः उसकी बड़ाईका हो चिन्ह है!
(७) सातधे, 'सूर्यप्रकाश' में सबसे अधिक बड़प्पनको बात यह है कि वह 'चर्चासागर' की अपेक्षा अधिक तथा गहरे प्रपंचको लिये हुए है। उसमें सबकुछ अपना इष्ट जैसे तैसे भविष्य वर्णनके रूप में भगवान महावीरके मुखसे कहलाया गया है-श्वेताम्बरों, हूँढियों, तेरह पंथियों और सुधारकों आदि को भरपेट गालियाँ भी उन्हीं के श्रीमुखसे दिलाई हैं ! और इसलिये वह सोलहों आने जिनवाणी है ! ग्बुद प्रन्थकारने उसका विशेषण भी 'जिनवक्त्रज' अर्थात् जिनमुखोत्पन्न दिया है ! जबकि 'चर्चासागर' के विधाताने इधर उधरकी नई पुरानी चर्चाएँ करते हुए जो कुछ बुरा भला कहा है वह सब अपने शब्दों में कहा है और उसके प्रमाणमें यथासंभव दूसरे प्रन्थोंके वाक्योंको उद्धृत किया है जो जैनाचार्यो, भट्टारकों, जैनपंडितों तथा धूतौ और अजैन विद्वानों तकके बनाये हुए हैं। इसीलिये चर्चासागरको पूरे तौर पर जिनवाणीका दर्जा प्राप्त नहीं है।
____ इस तरह पर 'सूर्यप्रकाश' को मैंने चिसागरका बड़ा भाई निश्चित किया है। इसका दर्शन-सौभाग्य मुझे हालमें